द्वय लंपट लोचन-चंचरीक, फिरते मानिनि-मुख-कमल-कमल,
प्रिय! तू तो अति हरजाई है।।
नित तेरी राह निहारूँ मैं,
विरहा में रात गुजारूँ में।
नव-अरुण संग हृद्! तेरे हित,
नख-शिख तन कनक सँवारूँ मैं।
मधुकर! क्यों भटके गलियों में? मधुरस ढूँढ़े नव-कलियों में?
मधु-कलश मेरी तरुणाई है।
प्रिय! तू तो अति हरजाई है।।१।।
सम्मुख सात्विक आभोग पड़ा,
तू रजस्-तमस् में क्यों जकड़ा?
क्या व्यथा व्यथे तेरे मन को?
क्यों शृंगाटक के केंद्र खड़ा?
आबंथ-बंध ढह जाने दे, तन-मन व्यलीक बह जाने दे,
अतिशय अतृप्ति दुखदाई है।
प्रिय! तू तो अति हरजाई है।।२।।
रख दे आ सिर अंक हमारे,
स्नेहिल छुवन पीर हर लगी।
मेरे कुन्तल की घन-छाया,
सब आतप निज सिर धर लेगी।
मर्दन भावों की नरमी का, सेचन साँसो की गरमी का,
शुचि स्नेह सरस सुखदाई है।
प्रिय! तू तो अति हरजाई है।।३।।
- राजेश मिश्र
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें