चित्त चंचल में विकल इक आह होगी।
दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।।
इस अनृत ससार में अनुरक्त होगा!
चर-अचर के प्रेम में आसक्त होगा!
आज यदि तू स्नेह का भागी बना है,
है सुनिश्चित कल पुनः परित्यक्त होगा।
मन व्यथित, हृद् में नहीं उत्साह होगी।
दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।।
कौन, कब, किसका रहा है इस धरा पर?
स्वार्थ-प्रेरित नित नये सम्बन्ध बनते।
छूट जाते, टूट जाते चटककर यदि,
वासना द्वय-पक्ष की नहिं पूर्ण करते।
आचरण अनुकूल ईप्सित वाह! होगी।
दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।।१।।
सित-असित कर्मों के फल सारे बँधे हैं,
पुण्य हो या पाप सब कुछ भोगना है।
और संचित शेष रह जाये यहाँ यदि,
फिर वही गठरी उठाकर लौटना है।
चक्र संसृति का वही पुनि राह होगी।
दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।।२।।
इस भँवर से मुक्ति की बहु युक्तियाँ हैं,
योग कर, नित भक्ति कर, आराधना कर।
कर्मफल कृत कृष्ण को नित कर समर्पित,
द्वंद्व सह निर्द्वंद्व हो नित साधना कर।
दग्ध-दुख हो, प्रभु-चरण में ठाह होगी।
दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।।
- राजेश मिश्र
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