तेरी अल्हड़ पदचापों पर, छम-छम-छम करती पायल पर,
बरबस समाधि लग जाती है…
जब-जब तू सम्मुख आती है,
बनकर बसंत छा जाती है।
मन मुग्ध मुदित हो जाता है,
बन प्राण मुझे महकाती है।
तेरे परिपूरित यौवन पर, कंचन-काया-मद-सौरभ पर,
बरबस समाधि लग जाती है…
जब कानों में कुंडल झूमें,
नासा को मुक्तामणि चूमे।
भुज-द्वय से अंगद केलि करें,
उन्मुक्त हार उर पर घूमे।
कटि-किंकिणि पर, कर-कंकण पर, बिंदी-टीका-चूड़ामणि पर,
बरबस समाधि लग जाती है…
जब चपल-चक्षु के चंचरीक,
मुखमंडल पर मंडराते हैं।
हृदयोत्पल के मधु भावों पर,
ज्यों अपनी सूंड़ गड़ाते हैं।
पाटल-प्रवाल से अधरों पर, गालों की अरुणिम आभा पर,
बरबस समाधि लग जाती है…
निर्मल मन से मधु छन-छन जब,
वाणी से निर्झर झरता है।
द्वय श्रवण-सरोवर से बहकर,
अंतरतम सिंचित करता है।
कोयल सी मीठी बोली पर, मदमाती हंसी-ठिठोली पर,
बरबस समाधि लग जाती है…
- राजेश मिश्र
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