कवि कबसे बैठ विचार रहा, ढूँढ़े सारे जड़-चेतन में।
उपजी न कहीं कविता मन में।।
ढूँढ़े सन्तप्त सूर्य-कर में,
शीतल सुधांशु की छाया में।
ढूँढ़े झिलमिल ताराङ्गण में,
वसुधा की श्यामल काया में।
उद्वेलित सिन्धु तरङ्गों में, चञ्चल समीर के नर्तन में।
उपजी न कहीं कविता मन में।।
उत्तुङ्ग अचल गिरि-श्रृङ्गों में,
नदियों के उर्वर समतल में।
अति दुर्गम दुसह पठारों में,
निष्फल निस्तेज मरुस्थल में।
सर, सरि, सुग सरित् सरोवर में, गृह-ग्राम-नगर-वन-उपवन में।
उपजी न कहीं कविता मन में।।
शुचि वेदों में, वेदाङ्गों में,
दर्शन, आगम सब ग्रन्थों में।
पशु-पक्षी-कीट-पतङ्गों में,
तरुणी के कोमल अङ्गों में।
जीवन के सित-तम भावों में, गोचर संसृति के कण-कण में।
उपजी न कहीं कविता मन में।।
- राजेश मिश्र
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