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दोहे

१)

वाद-विवाद अनन्त है, सर्वश्रेष्ठ है कौन?
आत्ममुग्ध जन-जन यहाँ, आप राखिए मौन।।

२)

बीते की चिन्ता नहीं, आगे की क्या जान?
वर्तमान में मुदित मन, भजिये राम सुजान।।

३)

राम-राम की रट रहे, श्याम रंग मन लीन।
कृपा करेंगे कृपानिधि, जानि भक्तजन दीन।।

४)

श्याम रंग यह गगन है, श्यामल धरती रूप।
जड़-चेतन में व्याप्त है,, श्यामल रूप अनूप।।

५)

राम अनादि अनंत प्रभु, सत्-चिद्-घन-आनंद।
राम-नाम में रमि रहो, छाँड़ि सकल छल-छंद।।

६)

पीन कलेवर वन करो, सूक्ष्माश्रम अभिराम।
कारण कुटिया बैठकर, जपो राम का नाम।।

पीन = स्थूल; सूक्ष्माश्रम = सूक्ष्म + आश्रम।

७)

माधव की माया-नदी, विस्तृत ओर न छोर।
इस तटिनी से तरण हित, थामो नाम की डोर।।

८)

मोहन की मुरली मधुर, भरै हृदय में स्नेह।
गोपिन श्रवणन ज्यों पड़ै, छाँड़ि चलैं निज गेह।।

9) 

तरुवर पर हर वर्ष ज्यों, आये शिशिर-वसंत।
मानव-जीवन में चले, सुख-दुख चक्र अनंत।।

१०)

बिन विचार के कर्म नहिं, सोच कर्म का मूल।
सुविचारों को राखिये, दुर्विचार निर्मूल।।

११)

मोर-पंख सिर पर धरे, उर वैजन्ती माल।
सुभग-अधर-कर वेणु धर, सोहत हैं नँदलाल।।

१२)

मोहक मोहन-मुख-कमल, मोहित सब संसार।
राखे हृदय सप्रेम जो, होवे भव से पार।।

१३)

त्रिगुणात्मक यह प्रकृति है, गुण अवगुण की खान।
तम-रज-सत् जब लीन हों, तभी स्वयं का ज्ञान।।

१४)

पाप-पुण्य का जगत में, जारी है नित खेल।
दोनों को जो तज सके, निज से उसका मेल।।

१५)

शिक्षा बदली भाषा बदली, खतम हुए कुछ भेद।
पति-पत्नी 'बाबू' हुए, या फिर 'बेबी', 'बेब'।।

१६)

भ्रात-भगिनि बैरी हुए, साला-साली मीत।
नये जगत की पौध हम, नयी हमारी रीत।।

१७)

शिक्षा की नव धारणा, क्षुद्र किया परिवार।
पति-पत्नी अरु सुत-सुता, शेष रहे बस चार।।

१८)

इस नश्वर संसार में, अति विचित्र यह रोग।
भले जनन से आप ही, रुष्ट रहें बहु लोग।।

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