छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।।
छू लिया हो भ्रमर को सौरभ सुमन ने,
पर्वतों की चोटियाँ प्रातःशिखा ने।
निर्झरी की देह को चञ्चल पवन ने,
गहन काली शर्वरी को चन्द्रिका ने।
कर गयी शर-विद्ध भृकुटि-कमान से।।
छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।।
कौंधकर सम्मुख अचानक दामिनी सी,
कृष्ण-कुन्तल-सघन-घन में खो गयी पुनि।
बस गयी हत हृदय में वह दिव्य मूरत,
मेनका के भाव में भावित हुये मुनि।
च्युत हुए हैं गाधिनन्दन ध्यान से।।
छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।।
खन-खनकते शब्द मधुरस में पगे से,
प्रतिध्वनित ज्यों श्रोत्र-द्वय में श्रुति-ऋचायें,
हृदय की गहराइयों से प्रकट पावन,
मन्दिरों में गूँजती हों प्रार्थनाएंँ।
कर्ण झङ्कृत हो उठे मधु तान से।।
छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।।
- राजेश मिश्र
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