काली घुंघराली मतवाली, अपनी अलकों से कह दो तुम,
मुख शरत्चंद्र से मत खेलें…
होठों की कोमल कलियां जब
हौले-हौले मुस्काती हैं।
लंपट लोलुप अलि अलकें तब,
मथुरस पीने आ जाती हैं।
उन्मत उच्छृंखल अरु अशिष्ट, कह दो इन चूर्णकुन्तलों से,
युग अरुण-अधर से मत खेलें…
गंगोत्री-सी आंखें तेरी,
जब सुरसरि स्नेह बहाती हैं।
मकरध्वज दग्ध हृदय मेरा,
जब सिंचित करने आती हैं।
आबंध-भाव-धारा बाधक, काकुल झुंडों से कह दो तुम,
युग नयन-नलिन से मत खेलें…
परिच्युत परित्यक्त पतित-पथगा,
चूमें कानों की बाली को।
कटि-कंध-ललाट-चिबुक चूमें,
चूमें गालों की लाली को।
लटकी लहराती बलखाती, इन भ्रष्ट लटों से कह दो तुम,
मृदुलांगों से ये मत खेलें…
- राजेश मिश्र
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