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मानव हैं हम द्वेष सहज है

मनुज स्वभाव, नहीं अचरज है। मानव हैं हम, द्वेष सहज है।। निर्बल को जब सबल सताए, वह प्रतिकार नहीं कर पाए, मन पीड़ा से भर जाता है,  द्वेष हृदय घर कर जाता है। वचन कठोर बोलता कोई, जब औकात तोलता कोई, व्यक्ति जहाँ जब डर जाता है, द्वेष हृदय घर कर जाता है। जब कोई प्रिय वस्तु हमारी, लगती जो प्राणों से प्यारी, कोई हमसे हर जाता है, द्वेष हृदय घर कर जाता है। जब जीवन दुखमय हो अपना, सुख बस बन जाए इक सपना, औरों का सुख खल जाता है, द्वेष हृदय घर कर जाता है। कर्महीन जब हम होते हैं, दैव-दैव करते रोते हैं, कर्मठ आगे बढ़ जाता है, द्वेष हृदय घर कर जाता है। आशंका से त्रस्त रहें जब, तिरस्कार-दुत्कार सहें जब, प्रेम हृदय का मर जाता है, द्वेष हृदय घर कर जाता है। यद्यपि द्वेष सहज होता है, किंतु सदा दुखप्रद होता है। शांति हमारी हर लेता है, क्रोध-घृणा मन भर देता है। तिल-तिल हमें जलाता रहता, रोगी सतत बनाता रहता। तन-मन को दूषित कर देता, अंदर विष-ही-विष भर देता। सुहृद दूर हो जाते सारे, सुख सपने बन जाते सारे। कोई निकट नहीं आता है, यह एकाकी कर जाता है। सारा ज्ञान नष्ट कर देता। निर्मल बुद्धि भ्रष्ट कर देता। पापाचा...

चुपके-चुपके मुझको देखें

चुपके-चुपके मुझको देखें, मैं देखूँ तो छुप जाते हैं। प्रेम हृदय का दृग से छलके, कहते-कहते रुक जाते हैं।। आँखें चञ्चल हिरनी जैसी, सतत कुलाँचें भरती हैं। पल को झाँके, पल में भागे, पल भर सद्य ठहरती है। खुलती मधुर अधर कलियों पर, लोलुप भँवरे लुट जाते हैं। प्रेम हृदय का दृग से छलके, कहते-कहते रुक जाते हैं।।१।। कांत-कपोल अरुण आभा से हृदय-कमल खिल जाता है। भावों की भावन सुगंध से मन महमह महकाता है। दंतावलि-द्युति चकाचौंध पर लाखों दिनकर झुक जाते हैं। प्रेम हृदय का दृग से छलके, कहते-कहते रुक जाते हैं।।२।। अलकें लोल कलोल निरत नित अंग-अंग को चूम रहीं। अन्-अधिकृत अंगों पर जहँ-तहँ आवारा बन घूम रहीं। लालायित द्वेषित दृग सबके मुझ भागी पर उठ जाते हैं। प्रेम हृदय का दृग से छलके, कहते-कहते रुक जाते हैं।।३।। - राजेश मिश्र 

हिंदी की शुद्धता

हमारी संस्कृति और परंपरा में माता-पिता का स्थान सर्वोच्च है, और इन दोनों में भी माता प्रथम पूजनीया है। कहा गया है कि यदि माता और पिता दोनों साथ में बैठे हों तो पहले माता को प्रणाम करना चाहिए, तत्पश्चात पिता को। उल्लेखनीय है कि जब भगवान राम वनगमन के लिए तत्पर हुए तो माता कौशल्या ने उनसे कहा - जौं केवल पितु आयसु ताता।  तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।। जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना।। वाल्मीकि रामायण में कहा गया है - जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। स्कंद पुराण में माता के संबंध में उद्धृत है कि -  नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गति:। नास्ति मातृसमा त्राण नास्ति मात्सया प्रपा।।  विभिन्न शास्त्र बार-बार माता की महिमा का बखान करते हैं। साथ ही ध्यातव्य  है कि माता शब्द केवल जन्मदात्री के लिए रूढ़ नहीं है। इसकी व्यापकता जड़ से चेतन और स्थूल से सूक्ष्म तक सर्वत्र है। इन्हीं असंख्य माताओं में एक माता हमारी भाषा भी है। उदाहरण के लिए संस्कृत भाषा की वंदना करते हुए कहा जाता है कि - वन्दे संस्कृत मातरम्। राजभाषा और हमारी मातृभाषा हिंदी भी हमारी इन्ही पूजनीय मा...

मनमोहन ने झलक दिखाई

मनमोहन ने झलक दिखाई। तन-कम्पन मन-नंद न जाई।। माथे मोर-मुकुट मनभावन, तन पट-पीत तड़ित सकुचावन, उर वैजन्ती माल सुहाई। मनमोहन ने झलक दिखाई।।१।। झर-झर प्रेम नयन-निर्झर से, भक्तन-जन-मन-मधुवन सरसे, अधर मधुर मुरली मुसकाई। मनमोहन ने झलक दिखाई।।२।। अतुलित छवि लखि लज्जित रति-पति, जन निरखत पावत यदुपति-गति, पाप-ताप-परिताप नसाई। मनमोहन ने झलक दिखाई।।३।। - राजेश मिश्र 

बम्-बम् बोल जगाना है

गोली नहीं चलानी तुमको, नहीं कृपाण उठाना है। शून्य, सुषुप्त, अचेतन जन को बम्-बम् बोल जगाना है।। कुछ अनभिज्ञ और अवगत कुछ, कुछ हैं आँखें मूँदे। कुछ अपनों के ही विरोध में, निशि-दिन नाचें-कूदें। सरल नहीं है, पर सम्भव है, संग सभी को लाना है। बम्-बम् बोल जगाना है।।१।। कुछ समझेंगे समझाने से, कुछ भय से जागेंगे। कुछ निर्बल, सहयोग अपेक्षित, स्वयं नहीं माँगेंगे। साम-दान से, दण्ड-भेद से, अपने साथ मिलाना है। बम्-बम् बोल जगाना है।।२।। मिल-जुलकर सब संग चलेंगे, संस्कृति बच जाएगी। धर्म-ध्वजा चहुँ-दिशि फहरेगी, सन्तति सुख पाएगी। "हेयं दुःखम् अनागतम्" का सबको पाठ पढ़ाना है। बम्-बम् बोल जगाना है।।३।। **हेयं दुःखमनागतम्।। (पातंजलि योगसूत्र, साधनपाद, सूत्र १६) हेयम् - नष्ट करने योग्य  दु:खम् - दुख अनागतम् - जो आया न हो, आने वाला हो  अर्थात् आने वाले दुख नष्ट करने योग्य होते हैं। - राजेश मिश्र 

प्रिय! तेरा संदेश मिला है

रीते नैना झर-झर झरते, झम-झम बरसे सावन। प्रिय! तेरा संदेश मिला है,  झूम रहा है तन-मन।। कितने सावन बीते, सूखे रीते-रीते। प्रेम-लता को हमने  दृग-निर्झर से सींचे। प्रेम-पुष्प पुनि आज खिला है, महका है फिर उपवन। झूम रहा है तन-मन।।१।। उर ऊसर था मेरा, संग मिला जब तेरा। उर्वरता भर आयी, आया नया सवेरा। हरियाली बंजर में छाई, उदित हुआ मन मधुवन। झूम रहा है तन-मन।।२।। विधि को मिलन हमारा लेकिन रास न आया। टूटा प्रेम-घरौंदा, हमने साथ बनाया। चकनाचूर हुए सब सपने, बिखर गया था जीवन। झूम रहा है तन-मन।।३।। - राजेश मिश्र