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छलक रहा तेरा यौवन

दिव्य अनिंद्य अनूप रूप है, अंग-अंग प्रति उद्दीपन। मधुशाला के मधु-प्याले सा, छलक रहा तेरा यौवन।। दृग-द्वय में मधु मधुर भरा है, मन मेरा लोलुप भँवरा है। मदमाती चितवन पर तेरी  सारा मधुवन तज ठहरा है। युगल जलज-लोचन को अर्पित, इस भँवरे का यह जीवन। छलक रहा तेरा यौवन।।१।। कृष्ण कुन्तलों से आती है, चन्द्रवदन-छवि छन-छन कर यों। श्याम सघन घन-ओट से झाँके शरत्पूर्णिमा-शुभ-सुधांशु ज्यों। भींगें सरस सुधा-वर्षा में, मेरे चकित चकोर-नयन। छलक रहा तेरा यौवन।।२।। कमनीया कंचन काया पर, ज्यों बैठा ऋतुराज सिमटकर। सद्य-स्फुट कोमल कलिकायें, आच्छादित तन-तरु पर सुन्दर। पग-पग झरते सुमन-सुरभि से, सुरभित हर्षित जड़-चेतन। छलक रहा तेरा यौवन।।३।। - राजेश मिश्र 

जब से तुमने दामन छोड़ा

जब से तुमने दामन छोड़ा  प्रिय! हम हँसना भूल गए। मर्यादा पीड़ा की टूटी, और तड़पना भूल गए।। जिन हाथों को हाथ में लेकर  घंटों बैठे रहते थे। मौन मुखर था, बस धड़कन से बातें करते रहते थे। उन सुकुमार स्निग्ध हाथों में  मेहँदी रचना भूल गए।  मर्यादा पीड़ा की टूटी, और तड़पना भूल गए।।१।। जिन नैनों की गहराई में  पल में डूबे जाते थे। जल बिन मीन तड़पते थे तुम जिस दिन देख न पाते थे। आँसू सारे सूख गए हैं, नैन छलकना भूल गए। मर्यादा पीड़ा की टूटी, और तड़पना भूल गए।।२।। नख-शिख सजकर, साँझ-सवेरे तुमसे मिलने आते थे। मेरे मुखमण्डल पर तेरे दृग-मधुव्रत मँडराते थे। जोगन बनकर घूम रहे हैं सजना-सँवरना भूल गए। मर्यादा पीड़ा की टूटी, और तड़पना भूल गए।।३।। - राजेश मिश्र 

वंश-वृक्ष

वंश-वृक्ष तनु-मूल पिता है, माँ शाखा-टहनी-पत्ते। सुन्दर सस्य*-सुमन बच्चे।। जड़ अदृश्य आधार वृक्ष का, भू के अन्दर रहता है। नित-प्रति नये कष्ट सहकर भी  उसको थामे रहता है। तना कठोर खुरदरा दीखे, अन्दर रस लहराता है। जड़ें जुटातीं दाना-पानी, वह ऊपर पहुँचाता है। पिता कभी करता न प्रदर्शित, कितने भी खाये धक्के। सुन्दर सस्य-सुमन बच्चे।।१।। शाखायेॅ-टहनी-पत्ते मिल  शेष व्यवस्था करते हैं। जड़ें जुटायें जो धरती से उसे प्रसंस्कृत करते हैं। सूरज का प्रकाश ले पत्ते उससे भोज्य बनाते हैं। सब अवयव पोषित होते हैं, और सभी हर्षाते हैं। माता गृह, गृहिणी, गृहेश्वरी, सोचे सुख-दुख का सबके। सुन्दर सस्य-सुमन बच्चे।।२।। स्वस्थ, सुभग, पोषित तरु पर पुनि कोमल कलियाँ खिलती हैं। साथ समय के विकसित होतीं, विकसित होकर फलती हैं। फल में बीज पनपते-बढ़ते, बीजों में भवितव्य छुपा। धर्म और संस्कृति का सारा तत्त्व और गन्तव्य छुपा। बच्चों की रखवाली करना, शत्रु मिटाकर या मिट के। सुन्दर सस्य-सुमन बच्चे।।३।। सस्य = फल - राजेश मिश्र 

मेरे जीवनसाथी

तुम मनभावन मनमीत मेरे। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। जीवन के पतझड़ की बहार। निर्झर नयनों का पुलक प्यार। तेरी साँसों का सुखद स्पर्श, मलयज शीतल सुरभित बयार।। मृदु वचन सुभग संगीत तेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। तेरा यौवन, तेरी काया। काले केशों की घन छाया। बाहें तेरी ज्यों कमलनाल, अधरों पर अरुण अरुण छाया।। हर हाव-भाव में प्रीत तेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। कर झंकृत मन-वल्लकी तार। धुन छेड़ो जिसमें प्यार-प्यार। हम डूबें, डूबें, जग डूबे, हो प्रेम वृष्टि ऐसी अपार।। कर दो बेसुध हे मीत मेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। जीवनधारा, जीवनसंगिनि। जीवन नहिं जीवन तेरे बिन। यूँ ही बरसाती रहना तुम, यह प्रेम-सुधा मुझ पर निशिदिन।। हृदयेशा! मन:प्रणीत मेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। वल्लकी = वीणा

परिणय-दिवस सिय-राम का

पावन परम, कलि-मल हरन, जग-जननि का, सुखधाम का, परिणय-दिवस सिय-राम का।। मन मुदित, पुलकित जानकी, मूरति हृदय रख राम की। दुलहन बनी, सज-धज चली , होने सदा श्रीराम की। हरषत चली, सँकुचत चली, करने वरण छविधाम का।। परिणय-दिवस सिय-राम का।।१।। शोभा अमित रघुनाथ की, छवि कोटि हर रतिनाथ की। मन मुग्ध निरखि विदेह का, आँखें सजल सिय मातु की। आनंद-घन, करुणायतन, रघुवर सकल गुण-ग्राम का। परिणय-दिवस सिय-राम का।।२।। रिपुदमन, भरत, लखन लला, श्रुतिकीर्ति, मांडवि, उर्मिला। चारों युगल लखि क्यों नहीं, मिथिला विमोहित हो भला। यह शुभ लगन, मंगलकरन, हो हेतु जग कल्यान का। परिणय-दिवस सिय-राम का।।३।। - राजेश मिश्र 

ओ रे निर्मोही! छोड़ चला किस देश?

ओ रे निर्मोही! छोड़ चला किस देश? पल भर को भी चित्त न लाया,  मुझ विरहिनि का क्लेश। ओ रे निर्मोही!…………।। कंचन काया धूमिल हो गई  चिंता रज छाई है। अंग-अंग प्रिय संग को तरसे,  तड़पे तरुणाई है। सूख-सूख तन शूल हो गया,  रूप-रंग नि:शेष। ओ रे निर्मोही!…………।।१।। निशि दिन नैना झरते रहते, सावन-भादों जैसे। दुख-नदिया अति बढ़ आई है, निकलूँ इससे कैसे? दिवस, मास, संवत्सर बीते, राह तकूँ अनिमेष। ओ रे निर्मोही!…………।।२।। मन मुरझाया, बुद्धि अचेतन, धड़कन डूबी जाये। प्राण हठी यह देह न त्यागे, दुर्दिन दैव दिखाये। सूरज, शशि, उडुगन से भेजूँ, नित नूतन संदेश। ओ रे निर्मोही!…………।।३।। - राजेश मिश्र 

कपटी बुद्ध हुआ जाता है

अन्तस् आच्छादित घन तम से, बाहर शुद्ध हुआ जाता है। कपटी बुद्ध हुआ जाता है।। बोली में सम्मान लिये है, मुखड़े पर मुस्कान लिये है। हँस-हँसकर है गले लगाता, पर कर में किरपान लिये है। उसके आडम्बर पर देखो, जन-जन लुब्ध हुआ जाता है। कपटी बुद्ध हुआ जाता है।।१।। धीरे-धीरे पास पहुँचता मीठी-मीठी बातें करता। जब सम्बन्ध सुदृढ़ हो जाता  अवसर पा पुनि घातें करता। उसकी काली करतूतों पर, यह मन क्रुद्ध हुआ जाता है। कपटी बुद्ध हुआ जाता है।।२।। नये-नये नित स्वाँग रचाता, भोले-भाले लोग लुभाता। पापी, पाखण्डी, व्यभिचारी, स्वप्न-जाल में उन्हें फँसाता। जिसको उसका सच बतलाओ, वही विरुद्ध हुआ जाता है। कपटी बुद्ध हुआ जाता है।।३।। - राजेश मिश्र 

मत मार मेरे अल्हड़पन को

मत मार मेरे अल्हड़पन को। इसमें मेरे प्राण निहित हैं,  ऊर्जित करते तन-मन को। मत मार मेरे अल्हड़पन को।। मैं अबोध, जग-बोध नहीं है, पीड़ा है, पर क्रोध नहीं है। निश्छल, छल मैं समझ न पाऊँ, अस्वीकृति, प्रतिरोध नहीं है। निर्झरि निर्मल जल जैसी में, सिंचित करती जीवन को। मत मार मेरे अल्हड़पन को।।१।। हृदय नवोदित नरम कली है, सरस, सुगंधित, सद्य खिली है। मधुर, मदिर, मदमस्त, मनोहर  भावों की सौरभ मचली है। दिग्दिगंत में मुक्त विचरती, भरती, हरती जन-मन को। मत मार मेरे अल्हड़पन को।।२।। सिंदूरी कमनीया काया, अंग-अंग मधुमास समाया। खंजन-से मन-रंजन लोचन, हँसी, कोई वीणा खनकाया। गजगामिनि, गज निरखि लजाये, मोहित करती त्रिभुवन को। मत मार मेरे अल्हड़पन को।।३।। - राजेश मिश्र 

रे बटोही! धीर धर

हाँ, कठिन है जीवन-डगर, रे बटोही! धीर धर।। मार्ग काँटों से भरे हैं, पत्थरों की ठोकरें हैं। है नहीं ठहराव कोई, पथ स्वयं ही चल रहे हैं। हो धूप कितनी भी प्रखर, रे बटोही! धीर धर।।१।। नियत पथ, गंतव्य निश्चित, और यात्रा अवधि निश्चित। ठोकरें कब-कब लगेंगी, घाव-पीड़ा सब सुनिश्चित। व्यर्थ का प्रतिकार मत कर, रे बटोही! धीर धर।।२।। द्वंद्व सह तू, कर्म कर तू, अडिग रह निज धर्म पर तू। तप यही है, साधना है, धर्म का हिय मर्म धर तू। मन मनन कर, चिंता न कर, रे बटोही! धीर धर।।३।। - राजेश मिश्र 

सूरज के ढलने पर ही

सूरज के ढलने पर जब घनघोर अंधेरा पलता है। अरुणोदय की आशा ले दीपक रातों को जलता है।। मन में यह विश्वास प्रबल है अन्धकार मिट जायेगा। स्याह भयावह रात ढलेगी सूरज फिर उग आयेगा। जब तक साँसें चलती रहतीं थके-रुके बिन चलता है। अरुणोदय की आशा ले………।।१।। कोई प्रतिफल नहीं चाहता अनासक्त निज कर्म करे। जन्म जगत में लिया हेतु जिस पालन अपना धर्म करे। निष्कामी का कर्म हमेशा औरों के हित फलता है। अरुणोदय की आशा ले………।।२।। सूरज को उपदेश न देता निज कर्तव्य निभाता है। नई साँझ, नित नया जन्म तम से लड़ने आता है। सत्य-धर्म हित बलि होने को हर इक बार मचलता है। अरुणोदय की आशा ले………।।३।। - राजेश मिश्र

गूँजती हो

गूँजती हो तन में मेरे, मन में मेरे, प्रार्थना के घंटियों-सी, श्रुति-ऋचा सी।। जब कभी एकांत में बैठा हुआ मैं, लड़ रहा होता अँधेरे से घनेरे। आ धमकती हो सुबह की रश्मियों-सी, और करती हो प्रकाशित प्राण मेरे। जगमगाती  तन में मेरे, मन में मेरे, अर्चना के दीप की निर्मल प्रभा-सी।।१।। जब कभी अवसाद के घन घेरते हैं, तुम तड़पती हो, चमकती चंचला-सी। सद्य बुझ जाती स्वयं, पर कर प्रकाशित, टिमटिमाती, गहन तम में तारका-सी। बिखरती हो  तन में मेरे, मन में मेरे, चन्द्रमा के चाँदनी की मधुरिमा-सी।।२।। हर कठिन पल में दिखाती रास्ता तुम, घुप अँधेरे में चमकते जुगनुओं-सी। हृदय लगकर, सोखकर संताप सारे, व्यथित मन में उतरती आशा-किरण सी। और बहती तन में मेरे, मन में मेरे, सर्ग के प्रारम्भ की नव-चेतना-सी।।३।। - राजेश मिश्र 

पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में

पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में। पंखों में ले, प्राण पवन से, निर्भयता मन में। पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में।। तोड़ सकल जंजीरें, उड़ जा, चुपके, धीरे-धीरे उड़ जा। ममता की यह नदी भयावह, निकल भँवर से, तीरे उड़ जा। तड़प रहा तूँ, भला बता क्यूँ उलझा बन्धन में? पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में।।१।। दुखड़ा तेरा कौन सुनेगा? सुनकर भी कोई न गुनेगा। अपना हो या होय पराया, नित नव नूतन जाल बुनेगा। ठाट-बाट के, जाल काट के उड़ जा कानन में। पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में।।२।। एक राम को अपना कर ले, नाव नाम की, भव से तर ले। मोहनि मूरति साँवरिया की, नेह लगा ले, उर में धर ले। कर ले पावन, कलुषित जीवन, लग हरि चरनन में। पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में।।३।। - राजेश मिश्र 

सबके अपने अहंकार हैं

कैसे मिल-जुल साथ चलें सब? प्रश्न विकट, उलझन अपार है… सबके अपने अहंकार हैं।। घर में भाई-भाई लड़ते, बाहर लड़ें पड़ोसी। किसको दोषमुक्त मानें हम, किसको मानें दोषी? ताली बजती दो हाथों से, दोनों पक्ष कसूरवार हैं… सबके अपने अहंकार हैं।।१।। धर्म-कर्म का पता नहीं है, आडम्बर में डूबे। जाति-जाति का भोंपू लेकर  सारे उछलें-कूदें। दम्भी-लोभी-कामी-क्रोधी, सदा स्वार्थ से सरोकार है… सबके अपने अहंकार हैं।।२।। सच्चाई का गला घोंटकर, झूठ की गठरी बाँधे। तीर द्वेष का लेकर घूमें, सरल जनों पर साधें। मेल नहीं कथनी-करनी में, तर्क निरालै निराधार हैं… सबके अपने अहंकार हैं।।३।। - राजेश मिश्र 

जब कोई पत्थर बरसाए

जब कोई पत्थर बरसाए,  खून तुम्हारा खौले है क्या? निरपराध कोई मर जाए,  खून तुम्हारा खौले है क्या? शत्रु-बोध से हीन रहोगे, सदा दुखी अरु दीन रहोगे। आगे चल वंशज कोसेंगे, आजीवन श्रीहीन रहोगे। बहू-बेटियाँ छेड़ी जाएँ,  खून तुम्हारा खौले है क्या? निरपराध कोई मर जाए,  खून तुम्हारा खौले है क्या?………………(१) ऐसा नहीं कि शक्ति नहीं है, या फिर तुममें भक्ति नहीं है। धर्मपरायण, संस्कृति-पोषक, पर विरोध-अभिव्यक्ति नहीं है। मूरति-मन्दिर  तोड़े जाएँ, खून तुम्हारा खौले है क्या? निरपराध कोई मर जाए,  खून तुम्हारा खौले है क्या?………………(२) अथक परिश्रम आजीवन कर, तिनका-तिनका जोड़ बना घर। तात-मात का तोष-प्रदाता, बच्चों का शुचि सपना सुंदर। कोई घर-सम्पत्ति जलाए, खून तुम्हारा खौले है क्या? निरपराध कोई मर जाए,  खून तुम्हारा खौले है क्या?………………(३) - राजेश मिश्र 

नित खींच-तान में फँसे लोग

नित खींच-तान में फँसे लोग। स्वार्थ-जम्बाल में धँसे लोग।। गाँवों की पीड़ा क्या समझें, आजन्म शहर में बसे लोग।। मिलने पर महका जाते हैं, मलय-सा शिला पर घिसे लोग।। सबको सद्य भाँप लेते हैं, जीवन-चक्की में पिसे लोग।। दुख दूसरों का समझ लेते हैं, कृतान्त-पाश में कसे लोग।। चित्त से उतर ही जाते हैं रंग उतरते, मन-बसे लोग।।  रक्त से सदा सींचा जिसने, उसी को सर्प बन डँसें लोग।। मदमस्त झूमते पी-पीकर जातिगत अहं के नशे लोग।। जम्बाल = कीचड़ कृतान्त = भाग्य  - राजेश मिश्र 

घर छोड़ चला है पंछी

खो बचपन, लड़ने जीवन की होड़ चला है पंछी… घर छोड़ चला है पंछी। माँ का आँचल, पितु का साया अब छूटे जाते हैं। करुण स्नेह के निर्झर नयनों से फूटे जाते हैं। प्रेम-निर्झरी की धारा को मोड़ चला है पंछी… घर छोड़ चला है पंछी।।१।। शक्ति-युक्त पंखों को पाकर चला विशाल गगन में। विश्व-विजय करने की इच्छा पाले अपने मन में। नये जगत से अपना नाता जोड़ चला है पंछी… घर छोड़ चला है पंछी।।२।। बिना सहारे, निज पंखों की ताकत अब तौलेगा। मात-पिता-गुरुजन शिक्षा से नये द्वार खोलेगा। निर्भय हो, मन के भय-भ्रम को तोड़ चला है पंछी… घर छोड़ चला है पंछी।।३।। - राजेश मिश्र

बचपन निराश क्यों है

सब बदहवास क्यों हैं? बचपन निराश क्यों है? सारे सम्बन्धों में, इतनी खटास क्यों है? बेटे-बेटियों बीच, माता उदास क्यों है? रात्रि की नीरवता में, मौन अट्टहास क्यों है? आजीवन दूर रहा, आज फिर पास क्यों है? बुझ चुकी आँखों में, सहसा प्रकाश क्यों है? ठुकराया बार-बार, उसी से आस क्यों है? गीदड़ों की गोष्ठी में, बहुत उल्लास क्यों है? सुख-सम्पत्ति सम्पन्न, जलधि में प्यास क्यों है? नियति के अधर-द्वय पर, यह कुटिल हास क्यों है? - राजेश मिश्र

भींगी-भींगी आँखों से, तुमको जाते देखा था

भींगी-भींगी आँखों ने, तुमको जाते देखा था। शायद तुमको याद नहीं। छोड़ो, कोई बात नहीं।। जब तुम डोली में बैठी, बुनती सपने साजन के। था दृग-द्वय से बीन रहा, टूटे टुकड़े मैं मन के। मन के टूटे टुकड़ों ने, तुमको जाते देखा था। शायद तुमको याद नही। छोड़ो, कोई बात नहीं।।१।। याद किए सारे सपने देखे थे मिलकर हमने। कंधे पर सिर रख मेरे  की थीं जो बातें तुमने। उन सपनों की किरचों ने, तुमको जाते देखा था। शायद तुमको याद नहीं। छोड़ो, कोई बात नहीं।।२।। फूल खिलाए थे तुमने  हृदय लगा जो भावों के छलनी कर डाला सीना काँटा बनकर घावों से। भावों के उन घावों ने, तुमको जाते देखा था। शायद तुमको याद नहीं। छोड़ो, कोई बात नहीं।।३।। - राजेश मिश्र 

आभा तेरी आती है

नीले-नीले नभ अंचल से, नव नील-नलिन के शतदल से,  आभा तेरी ही आती है। मनहर मन हर ले जाती है।। जब कुक्कुट टेर लगाता है, सूरज सोकर उठ जाता है। जब घूँघट उषा खोलती है, मृदु मलयज वायु डोलती है। मेघों के श्यामल रंगों से, श्यामला धरा के अंगों से, आभा तेरी ही आती है। मनहर मन हर ले जाती है।।१।। स्वर्णिम रवि-किरणें आती हैं, छूकर कलियाँ मुसकाती हैं। वन-उपवन पुष्प महकते है, जब वाजिन्-वृंद चहकते हैं। जन-जन में जागृत जीवन से, निश्छल नवजात के बचपन से, आभा तेरी ही आती है। मनहर मन हर ले जाती है।।२।। हिमगिरि हिम-हृदय पिघलता है, बन अश्रु नदी जब चलता है। सचराचर सिंचित सिक्त करे, नित नवजीवन उद्दीप्त करे। सागर-सरिता आलिंगन से, हर्षित लहरों के नर्तन से, आभा तेरी ही आती है। मनहर मन हर ले जाती है।।३।। जब सूर्य श्रमित हो जाता है, संध्या की गोद में जाता है। शुभ साँझ का दीपक जलता है, तम से प्रभात तक लड़ता है। घन अंधकार की बाँहों से, निस्तब्ध निशा की साँसों से, आभा तेरी ही आती है। मनहर मन हर ले जाती है।।४।। सब कुछ तेरा ही रचा हुआ, सबमें तू ही है बसा हुआ।‌ सब लीन तुझी में होना है, तुझमें ही है सब प्रकट हुआ। श्रुति...

ढूँढ़ूँ मैं प्रिय राम कहाँ हो?

ढूँढ़ूँ मैं प्रिय राम कहाँ हो? मेरे सुख के धाम कहाँ हो? तुम बिन नैन चैन नहिं पायें, सूखें इक पल, पुनि भर आयें। इत-उत देखें, राह निहारें, पथरायें, पुनि-पुनि जी जायें। लोचन ललित ललाम कहाँ हो? मेरे सुख के धाम कहाँ हो?………(१) अंग शिथिल हैं, तन कुम्हलाया, हुआ अचंचल, मन मुरझाया। हाहाकार हृदय करता है, बुद्धि-विवेक ने ज्ञान गँवाया। तन-मन के आराम कहाँ हो? मेरे सुख के धाम कहाँ हो?………(२) तुम बिन शशधर-भानु रुके हैं, दिवस आदि-अवसान रुके हैं। श्याम वदन दर्शन-वन्दन हित, सतत टूटते प्राण रुके हैं। ढूँढ़ रहे अविराम कहाँ हो? मेरे सुख के धाम कहाँ हो?………(३) - राजेश मिश्र 

साथ-साथ चलते रहना है

लक्ष्य कठिन है, नहीं असंभव, साथ-साथ चलते रहना है। बाधाएँ पग-पग आएंगी, जय करते, बढ़ते रहना है।। भला महल में बैठ बताओ किसने, क्या इतिहास रचा? सात द्वार के भीतर छुपकर  भी क्या कोई शेष बचा? मृत्यु अटल है, आएगी ही, उससे क्या घबराना है? नियत काल है, दशा-जगह है, जीते क्यों मर जाना है? याद रखो! जब तक जीवन है, धर्मयुद्ध लड़ते रहना है। बाधाएँ पग-पग आएंगी, जय करते, बढ़ते रहना है।।१।। युगों-युगों तक देव लड़े रण असुर, दैत्य, दानव दल से। हारे भी, पर लड़े पुन: पुनि, छल को जीता तप-बल से। महल छोड़, वनवासी बनकर, रावण से रण राम लड़े। किया व्ध्वंस आतंक कंस का, आजीवन रण कृष्ण लड़े। अर्जुन-सा वध धूर्त सगों का, धर्म हेतु करते रहना है। बाधाएँ पग-पग आएंगी, जय करते, बढ़ते रहना है।।२।। गुरु गोविंद, प्रताप, शिवाजी  के तलवारों-भालों ने। शत्रु-रक्त से भारत माँ की माँग सजा दी लालों ने। रामचन्द्र, आजाद, भगतसिंह  माटी पर बलिदान हुए। लक्ष्मी, दुर्गा, चेनम्मा की अमर कीर्ति के गान हुए। बन सुभाष हर विषम परिस्थिति  में गाथा गढ़ते रहना है। बाधाएँ पग-पग आएंगी, जय करते, बढ़ते रहना है।।३।। - राजेश मिश्र...

हिंदू-हिंदू भाई-भाई

छोड़ो जाति-पाँति की बातें, हिंदू-हिंदू भाई-भाई। तज दो मन की कड़वी यादें, हिंदू-हिंदू भाई-भाई।। हम सब मनु की संतानें हैं, वर्ण कर्मवश चार हुए। जाति कुशलता की परिचायक, भिन्न-भिन्न व्यापार हुए। गाधितनय ब्रह्मर्षि कहाते, हिंदू-हिंदू भाई-भाई। तज दो मन की कड़वी यादें, हिंदू-हिंदू भाई-भाई।।१।। इक शरीर हैं, अंग अलग हैं , एक हृदय की धड़कन है। पोषित होते उसी उदर से, सबमें रमे वही मन है। रक्त एक है, भेद कहाँ से? हिंदू-हिंदू भाई-भाई। तज दो मन की कड़वी यादें, हिंदू-हिंदू भाई-भाई।।२।। राम-कृष्ण ने जाति देखकर  किसको निम्न-उच्च माना? जो भी आया, हृदय लगाया, अपने जैसा ही जाना। हम क्यों अलग नीति अपनायें? हिंदू-हिंदू भाई-भाई। तज दो मन की कड़वी यादें, हिंदू-हिंदू भाई-भाई।।३।। - राजेश मिश्र  चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। - भगवद्गीता अ. ४, श्लो. १३

छिद्रान्वेषी

इस जगत-जंजाल से जो थक चुका है। योग पावन अग्नि में जो पक चुका है। प्रकृति का अवसान कर कृतकृत्य है जो। आत्म की पहचान कर अब नित्य है जो। क्यों अविद्या-क्लेश उसमें ढूँढते हो? वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(१) असत्, केवल असत् जग जिसके लिए है। ब्रह्म, केवल ब्रह्म सत् जिसके लिए है। ब्रह्म ही जो देखता है इस जगत् में। जीव में, निर्जीव में, हर एक कण में। तमस का क्यों लेश उसमें ढूँढते हो? वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(२) कर्मफल की कामना से मोड़कर मन। सफल हो असफल, नहीं अत्यल्प उलझन। हो उदासी, कर्म करता जा रहा जो। कर्मपध पर सतत बढ़ता जा रहा जो। कामना अवशेष उसमें ढूँढते हो? वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(३) कर चुका निज को समर्पित कृष्ण को जो। कर्म करता वह सदा प्रिय इष्ट को जो। जो निरत नित साधना-आराधना में। मधुप इव प्रभु-चरण-रज की याचना में। प्रेममय जो, द्वेष उसमें ढूँढते हो? वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(४) तुंग-हिमगिरि-शृंग खाई ढूँढ़ते हो। प्रखर रवि-कर-निकर झाँईं ढूँढ़ते हो। सदा सत् में असत् भाई ढूँढ़ते हो। हो बुरे जो बस बुराई ढूँढ़ते हो। छद्म का लवलेश सबमें ढूँढ़ते हो। स्वयं को अनिमेष सबमें ...

बांग्लादेश की त्रासदी

पाँच बरस की सहमी बेटी, छाती से चिपकाए। सात दिनों से घर में दुबकी, नेहा नीर बहाए। दैव! कैसा दुर्दिन दिखलाए? हमने भी तो खून बहाए इस मिट्टी की खातिर। देश हमारा, इसी देश में  आज बने हैं काफ़िर। जिस मिट्टी में हमने अपने, सौ-सौ पुश्त खपाए, भला क्यों कर काफ़िर कहलाए?……(१) सीधे-सादे पति को मारा गाड़ी साध जलाई। अस्मत उनने लूटी मेरी,  जो बनते थे भाई। इस नन्ही सी जान को उनसे, कैसे आज बचाएं? भागकर किस चौखट पर जाएं?……(२) हा दुर्दैव! तोड़ दरवाजा भीड़ घुस गई अन्दर। माँ को मारा, बेटी छीनी हृदयविदारक मंज़र। चीखें बच्ची की टूटीं तब, दानव बाहर आए, हँस रहे बड़ी विजय हों पाए।……(३) पाक, अफगान, बांग्ला में अब नंगा नाच चल रहा। कोटि-कोटि हिंदू भारत में, सेक्युलर बना पल रहा। है भवितव्य यही इनका भी, कौन इन्हें समझाए? लुटें बेटी-बहनें-माताएं।……(४) - राजेश मिश्र

बहनें पढ़-लिख फेमीनिस्ट हो गईं

सामाजिक संरचना ट्विस्ट हो गई। बहनें पढ़-लिख फेमीनिस्ट** हो गईं।।१।। घर की कुंठा ले बाहर आती है, औरों के जीवन में सिस्ट हो गईं।।२।। जब देखो, पीड़ित ही पीड़ित दिखती हैं, किसी कोमलांगी की रिस्ट हो गईं। ।३।। कल तक जो हर मंदिर-मंदिर घूमती थी, चर्च-मॉस्क जा सेक्युलरिस्ट हो गई।।४।। नन्ही सी गुड़िया गोद में बैठकर, हर पीड़ा की थेरेपिस्ट हो गई।।५।। हमको बिछड़े बरसों बीत गए हैं, शनै:-शनै: सारी यादें मिस्ट हो गईं।।६।। थीं निर्बल-सी अलग-अलग अंगुलियां, साथ मिलीं, तो मिलकर फिस्ट हो गईं।।७।। लिखने बैठे जो अपनी जीवन-गाथा, तुम सारी गाथा का जिस्ट हो गई।।८।। **शर्तें लागू  १. यह कथन सभी पढ़ी-लिखी बहनों पर लागू नहीं होता है। २. इसमें कुछ कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ बहनें भी आ सकती हैं। ३. कुछ अनपढ़ बहनें पढ़ी-लिखी से भी बढ़-चढ़कर हो सकती हैं। ४. कृपया व्यक्तिगत मत लें। वैसे इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। twist - बदलना feminist - परिभाषित करना कठिन है cyst - गाँठ wrist - कलाई, मणिबन्ध church - गिरिजाघर  mosque - मस्जिद  secularist - आह! बताने की आवश्यकता है? therapist - चिकित्सक  mist - कुहासा f...

तुम आए नवजीवन आया

मुरझाया-सा मन मुसकाया सूने-बूढ़े गाँव में। तुम आए नवजीवन आया सूने-बूढ़े गाँव में।। अनमनि गइयाँ लगीं रँभाने,  चिड़ियाँ चह-चह चहक उठीं। क्षीण-ज्योति बाबा-आजी की आँखें फिर से चमक उठीं। तुम्हें देख आँगन हरषाया सूने-बूढ़े गाँव में। तुम आए नवजीवन आया सूने-बूढ़े गाँव में।।१।। गूँगी-सी माँ की बोली अब कोयल सा रस भरती है। कई बरस के बाद कड़ाही  छन-छन पूड़ी तलती है। पकवानों ने घर महकाया सूने-बूढ़े गाँव में। तुम आए नवजीवन आया सूने-बूढ़े गाँव में।।२।। खेतों में हरियाली आई ताल-पोखरे उमग पड़े। परिजन, पशु, पक्षी, पौधे सब विह्वल तन-मन सजल खड़े। पीपल-पात पुन: लहराया सूने-बूढ़े गाँव में। तुम आए नवजीवन आया सूने-बूढ़े गाँव में।।३।। - राजेश मिश्र 

हे राम! बताओ अब हमको कैसी पहली दीवाली थी

बाईस जनवरी शुभ दिन था, उस दिन की बात निराली थी। हे राम! बताओ अब हमको, कैसी पहली दीवाली थी? कैसी थी जब तुम आये थे चौदह वर्षों के बाद अवध? कैसी है तनिक बताओ तो, पा तुमको सदियों बाद अवध? यह रात बहुत मतवाली है, वह रात भी अति मतवाली थी। हे राम! बताओ अब हमको, कैसी पहली दीवाली थी?……………(१) थे वे भी तुम बिन व्यथित सदा, हम भी तुम बिन नित व्यथित रहे। आँखों से आँसू पीते थे, आओगे तुम, पर अडिग रहे। सदियों पर सदियाँ गयीं मगर, हमने पथ दृष्टि गड़ा ली थी। हे राम! बताओ अब हमको, कैसी पहली दीवाली थी?……………(२) विश्वास न टूटा आओगे, विश्वास हमारा बना रहा। पाकर तुमको हम धन्य हुए, सिर झुका नहीं, सिर तना रहा। हे नाथ! कृपा कर भक्तों की, तुमने फिर लाज बचा ली थी। हे राम! बताओ अब हमको, कैसी पहली दीवाली थी?……………(३) - राजेश मिश्र 

आखिर कब तक सहते जाएं कुलघाती जयचन्दों को

काट फेंक दो जीवन-घाती तन के दूषित अङ्गों को। आखिर कब तक सहते जायें कुलघाती जयचन्दों को? जिस शरीर के अङ्ग, उसी को  नोंच-नोंच कर खाते हैं। जिसकी कोख से जन्मे, उसके  टुकड़े करते जाते हैं। इनसे मुक्ति दिलानी होगी स्वस्थ और नव अङ्गों को। आखिर कब तक सहते जायें कुलघाती जयचन्दों को?……………(१) सेक्युलरिज्मी चोला ओढ़े  हर कुकर्म ये करते हैं। सत्य सनातन के विरोध में  नित नव गाथा गढ़ते हैं। सावधान रह, निष्फल कर दो इनके सब हथकण्डों को। आखिर कब तक सहते जायें कुलघाती जयचन्दों को?……………(२) इनके कारण हिन्दू खण्डित  जाति-क्षेत्र में बँटा रहा। उत्तर-दक्षिण, भाषा-भोजन, इक-दूजे से कटा रहा। इन्हें मिटाओ, साथ मिलाओ सारे टूटे खण्डों को। आखिर कब तक सहते जायें कुलघाती जयचन्दों को?……………(३) - राजेश मिश्र 

अग्नि हूँ मैं

अग्नि हूँ मैं! यदि भस्म होने का साहस है, अस्तित्व खोने का साहस है, तो ही समीप आना। दग्ध हो सकते हो यदि  मेरा तेज लेकर दहकते सूर्य की तरह, और दे सकते हो जीवन  दूसरों को,  कर सकते हो उनका  पालन पोषण उस ऊर्जा से, तो ही समीप आना। सोख सकते हो यदि  मेरे ताप को शीतल सुधांशु की तरह, और बाँट सकते हो अमृत इस नश्वर संसार में, बिखेर सकते हो  धवल चन्द्रिका  भयानक अँधेरी रात में, तो ही समीप आना। जल सकते हो यदि आँच में मेरी दीपक की तरह, दे सकते हो अपना रक्त  तेल की जगह, और बाँट सकते हो  आशा का उजियारा  निराश, उदास  अँधेरे में बिलखते, छटपटाते विपन्न परिवारों को, तो ही समीप आना। जल सकते हो यदि  यज्ञ की समिधा की भाँति थथक-धधक कर मेरी लपलपाती  जिह्वाओं के मध्य, और बन सकते हो सत्यनिष्ठ वाहक आहुतियों का जनकल्याण हेतु, तो ही समीप आना। सह सकते हो यदि मेरे हलाहल का संताप  शिव की तरह, और समर्पित कर सकते हो मुझे  अपनी तीसरी आँख सचराचर के कल्याण हेतु  सदा सर्वदा के लिए, फिर भी रह सकते हो  प्रसन्नचित्त  स्वयं भी  औरों पर...

सुनो जाहिलों!

सुनो जाहिलों! हम भारत के वीर पुत्र हैं, क्षमा हमारा भूषण है… किन्तु धैर्य जब टूटेगा, भाग्य तुम्हारा फूटेगा।। रेगिस्ताँ में रहने वाले, धरती चपटी कहने वाले, हैं कैसे आदर्श तुम्हारे? ब्याह बहन से करने वाले। सुनो जाहिलों! राम-कृष्ण का वीर्य है तुममें, इष्ट रुद्र हैं, पूषण हैं… नहीं समझ में आयेगा! अति विलंब हो जायेगा।।१।। बाप तुम्हारे कायर थे जो, धर्म बदलकर प्राण बचाये। विवश हुईं तब बहन-बेटियाँ, बिंदिया अरु सिन्दूर मिटाये। सुनो जाहिलों! गहरा ढूँढ़ोगे, पाओगे, वह उनका अनुकर्षण है… अब भी चाह वही उनकी। जीवन-राह वही उनकी।।२।। कुछ ही पीढ़ी भ्रष्ट हुई हैं, अभी शुद्धता शेष बची है। अब भी वापस आ सकते हो, रग में संस्कृति यही रची है। सुनो जाहिलों! वर्षों की जो धूल जमी है, धुँधला मन का दर्पण है… जैसे इसे हटाओगे। अपना परिचय पाओगे।।३।। - राजेश मिश्र 

तुम सुखद वृष्टि बन आई

इस शुष्क-तप्त जीवन में,  तुम सुखद वृष्टि बन आई। सोंधी-सी सुरभि बिखेरा,  तन-मन ने ली अँगड़ाई।। पाकर के साथ तुम्हारा, नव-स्फूर्ति जगी इस मन में। फिर फूल खिले आँगन में, आनन्द भरा जन-जन में। अद्भुत था, अद्भुत वह पल  जब माँ बन तुम मुसुकाई। इस शुष्क-तप्त जीवन में,  तुम सुखद वृष्टि बन आई।।१।। यह यात्रा नहीं सरल थी, सम्बल था साथ तुम्हारा। जो भी मैं बन-कर पाया, है श्रेय तुम्हारा सारा। हर बार बाँह थामा है, जब-जब है ठोकर खाई।। इस शुष्क-तप्त जीवन में,  तुम सुखद वृष्टि बन आई।।२।। संघर्ष भरा यह जीवन, मैं हृदय और तुम धड़कन। जनमों का संग हमारा, मन माँगे साथ विसर्जन। तुम बिन यह जीवन मेरा, होगा अतिशय दुखदाई। इस शुष्क-तप्त जीवन में,  तुम सुखद वृष्टि बन आई।।३।। - राजेश मिश्र 

प्रीत तेरी मन बसी

प्रिय! प्रीति तेरी मन बसी, तन छूट जाए या रहे। हँसता प्रिये! तेरी हँसी, तन छूट जाए या रहे। प्रिय प्रीति तेरी…………।। क्या हुआ, यदि संग-संग न रह सके! बात मन की बोलकर नहिं कह सके! पर हृदय में तू सदा थी, तू रहेगी, कौन दूजा, जो तपन यह सह सके? उर मूर्ति तेरी ही सजी, तन छूट जाए या रहे। प्रिय प्रीति तेरी मन बसी………।।१।। अंग-अंग सुगन्ध ले तेरी फिरूँ मैं, सुरभि कस्तूरी लिये मृग फिर रहा ज्यों। प्रेम बिन तेरे अमा का चन्द्रमा मैं, तमस में डूबा हुआ खो चन्द्रिका ज्यों। तू मलय बन रग-रग रची, तन छूट जाए या रहे। प्रिय प्रीति तेरी मन बसी………।।२।। है असम्भव जन्म भर कुछ और चाहूँ, तू प्रथम है, और अन्तिम चाह मेरी। जन्म लेता ही रहूँगा चिर-मिलन तक, इस जगत से मुक्ति की तू राह मेरी। तेरे बिना कुछ भी नहीं, तन छूट जाए या रहे। प्रिय प्रीति तेरी मन बसी………।।३।। - राजेश मिश्र 

साथ-साथ चलना होगा

झुण्ड-झुण्ड में छुपे भेड़िये, घात लगाये बैठे हैं। धन-जीवन-सम्मान बचाने,  साथ-साथ चलना होगा… यह अँधियारी रात सुबह की ओर बढ़ी जाती है। साँझ छूटती पीछे, आगे भोर चली आती है। किन्तु समय लम्बा लगना है, धैर्य बनाए रखना। अपने पीछे छूट न जाएँ, हाथ बढ़ाए रखना। सघन गहन है, पथ दुर्गम है,  पग-पग कर बढ़ना होगा। साथ-साथ चलना होगा………(१) पथ में होंगे वक्ष फुलाए गर्वीले भूधर भी। मुँह बाए खाई भी होगी, अजगर-से गह्वर भी। झंझानिल के क्रूर थपेड़े, होंगे उदधि उफनते। फिर भी बढ़ते चलना है सबसे लड़ते, सब सहते। शत्रु धूर्त है, विकट युद्ध है, मिल-जुलकर लड़ना होगा। साथ-साथ चलना होगा………(२) यह अरि अधम, अनैतिक, अतिबल, क्षमा-दया नहिं जाने। नीति न नियम, न कोई बन्धन, मर्यादा नहिं माने। छल से, बल से, अस्त्र-शस्त्र से, जय जैसे भी आये। खग जाने खग ही की भाषा, बाकी समझ न पाये। धैर्य राम का, नीति कृष्ण की, ढंग नया गढ़ना होगा। साथ-साथ चलना होगा………(३) - राजेश मिश्र 

कब तक खैर मनाओगे

भाईचारा में चारा बन, तुम कब तक खैर मनाओगे? निश्चित वह दिन आयेगा ही, जब काटे-बाले जाओगे।। भाई, भाई के हुए नहीं, भाई, बहनों के हुए नहीं। इतिहास उठाकर देखो तो, बेटे, माँ-बाप के हुए नहीं। तुम इनसे आशा करते हो, बदले में धोखा खाओगे। निश्चित वह दिन आयेगा ही, जब काटे-बाले जाओगे।।१।। पहले पालें, फिर काटें ये, ऐसी ही शिक्षा है इनकी। अपनाना, बोटी कर देना, सदियों से दीक्षा है इनकी। अति क्रूर कभी ममता न करें, भूलोगे तो पछताओगे। निश्चित वह दिन आयेगा ही, जब काटे-बाले जाओगे।।२।। आधा खेत गधे ने खाया, आधा फिर भी बचा हुआ है। तुम सोये हो चद्दर ताने, वह खाने में लगा हुआ है। नहीं उठे तो कुछ न बचेगा, घर से बेघर हो जाओगे। निश्चित वह दिन आयेगा ही, जब काटे-बाले जाओगे।।३।। - राजेश मिश्र 

हम राम-कृष्ण की सन्तानें

हम राम-कृष्ण की सन्तानें, मन्दिर में उन्हें सजायेंगे, गुण उनके नहिं अपनायेंगे। खोखली हमारी पूजा है, खोखली हमारी भक्ति है। खोखली हमारी बातें हैं, खोखली हमारी शक्ति है। जिनको आदर्श बनायेंगे, उनके पीछे नहिं जायेंगे, गुण उनके नहिं अपनायेंगे।।१।। कब राम धर्म से विमुख हुए? कब कृष्ण कर्म से मुँह मोड़े। कब वे अपनों के साथ न थे? कब एकाकी लड़ता छोड़े? आस्था का राग अलापेंगे, झूठी श्रद्धा दिखलायेंगे। गुण उनके नहिं अपनायेंगे।।२।। यदि सचमुच उनके वंशज हो! उन आदर्शों के पालक हो! अब उठो! उठो! उठ युद्ध करो, तुम ही अरि-दल संहारक हो। संग्राम करो, प्रतिमान बनो, युग-युग तक सब गुण गायेंगे। सब मस्तक तुम्हें नवायेंगे।।३।। - राजेश मिश्र 

चलो-चलो कुछ गीत लिखेंगे

उदारमना धर्मनिरपेक्ष कवियों को समर्पित एक गीत… चलो-चलो कुछ गीत लिखेंगे। छोड़ो धर्म-कर्म की बातें, छोड़ो देश-राष्ट्र की चिंता। इन विषयों पर सोच-सोच कर, दुख को छोड़ और क्या मिलता? किसी षोडशी के यौवन पर, न्यौछावर हो, प्रीत लिखेंगे। चलो-चलो कुछ गीत लिखेंगे।।१।। हम क्या धर्म-जाति के रक्षक? देश-राष्ट्र के प्रहरी हैं क्या? हमको क्यों पड़ना झगड़ों में? धर्मोन्मादी सनकी हैं क्या? हम सच्चे सद्भाव समर्थक, धर्म-मुक्त हो जीत लिखेंगे। चलो-चलो कुछ गीत लिखेंगे।।२।। कुछ लोगों के बहकावे में, भाईचारा क्यों छोड़ें हम? वे भी तो अपने ही हैं फिर, कैसे उनसे मुँह मोड़ें हम? आधी हिंदी, आधी उर्दू, गंगा-जमुनी रीत लिखेंगे। चलो-चलो कुछ गीत लिखेंगे।।३।। - राजेश मिश्र 

अब भी यदि चुप रह जाओगे

अब भी यदि चुप रह जाओगे, जीवन भर तुम पछताओगे।। जो इक बार चला जाता है, समय लौट कर कब आता है? निर्णय जब न लिए जाते हैं, परिणामों से पछताते हैं। अवसर स्वर्णिम खो जायेगा, दुविधा में यदि रह जाओगे। अब भी यदि चुप रह जाओगे, जीवन भर तुम पछताओगे।।१।। जिसका दम्भ सदा भरते हो, कहाँ गई वह शक्ति तुम्हारी? इष्ट निरादृत सतत हो रहे, कहाँ गई वह भक्ति तुम्हारी? बच्चे कल जब प्रश्न करेंगे, बोलो, मुँह क्या दिखलाओगे? अब भी यदि चुप रह जाओगे, जीवन भर तुम पछताओगे।।२।। आज प्राण बच भी जायें तो आगे क्या होगा? सोचा क्या? संस्कृति-धर्म विनष्ट हुए तो, गोत्र अवित होगा? सोचा क्या? तर्पण-श्राद्ध भूल ही जाना, तृषित-अतृप्त चले जाओगे। अब भी यदि चुप रह जाओगे, जीवन भर तुम पछताओगे।।३।। - राजेश मिश्र

रावण को जल जाने दो

आज दशहरा, विजय-पर्व है,  विजय-ध्वजा फहराने दो। रावण को जल जाने दो।। कोई कैकेई महलों में, ऐसा अब वरदान न माँगे। एक पुत्र के लिए सिंहासन, इक को वन-प्रस्थान न माँगे। पुत्र-वियोग में कोई दशरथ, मत धरती से जाने दो।। रावण को जल जाने दो।।१।। फिर से कोई भरत-शत्रुघन, राम-लक्ष्मण से नहिं बिछुड़ें। किसी अयोध्या नगरी की फिर, कहीं कभी भी माँग न उजड़े। किसी उर्मिला के आँचल में, सूनी साँझ न आने दो।। रावण को जल जाने दो।।२।। हरण जानकी का मत हो फिर, वृद्ध-गिद्ध के पंख कटे नहिं। अग्नि-परीक्षा देने वाली, सीता को गृह-त्याग मिले नहिं। मात-पिता दोनों के आश्रय, लव-कुश को पल जाने दो।। रावण को जल जाने दो।।३।। - राजेश मिश्र 

जगदम्बायै नमो नमः

जगदम्बायै नमो नमः। दुर्गादेव्यै नमो नमः।। जन-मन रञ्जनि, भव-भय-भञ्जनि, नित्य निरञ्जनि नमो नमः। माँ अविनाशी, उर-पुर-वासी, सदा-उदासी नमो नमः।। शैलपुत्र्यै नमो नमः। ब्रह्मचारिण्यै नमो नमः।। जगदम्बायै नमो नमः। दुर्गादेव्यै नमो नमः।।१।। असुर-मर्दिनी, दैत्य-ताड़िनी, देव-रक्षिणी नमो नमः। भक्त-अभयदा, ऋषि-मुनि सुखदा, रमा-शारदा नमो नमः। चन्द्रघण्टायै नमो नमः। कूष्माण्डायै नमो नमः।। जगदम्बायै नमो नमः। दुर्गादेव्यै नमो नमः।।२।। पाप-नाशिनी, ताप-नाशिनी, शान्ति-दायिनी नमो नमः। क्षमा-रूपिणी, कृपा-कारिणी, कान्ति-दायिनी नमो नमः। स्कन्दमातायै नमो नमः। कात्यायन्यै नमो नमः।। जगदम्बायै नमो नमः। दुर्गादेव्यै नमो नमः।।३।। शक्ति-दायिनी, मुक्ति-दायिनी, भक्ति-दायिनी नमो नमः। धैर्य-दायिनी, वीर्य-दायिनी, क्षुधा-रूपिणी नमो नमः। कालरात्र्यै नमो नमः। महागौर्यै नमो नमः।। जगदम्बायै नमो नमः। दुर्गादेव्यै नमो नमः।।४।। पाप हरो माँ, ताप हरो माँ, शीतल कर दो आज हमें। अन्तरतम की मैल हटा दो, निर्मल कर दो आज हमें। सिद्धिदात्र्यै नमो नमः। जगन्मात्रे नमो नमः।। जगदम्बायै नमो नमः। दुर्गादेव्यै नमो नमः।।५।। - राजेश मिश्र 

सबको इक दिन जाना होगा

सत्य यही है, जो आया है उसको इक दिन जाना होगा। फिर भी, जब तुम चले गये तो हृदय व्यथित है, मन उदास है।। सरल हृदय था, सहज मनुज थे, वैर किसी से नहीं बढ़ाया। जन की पीड़ा कम करना ही, निज जीवन का ध्येय बनाया। आजीवन वह लक्ष्य अडिग था, अति दृढ़ता से ठाना होगा।। फिर भी, जब तुम चले गये तो हृदय व्यथित है, मन उदास है।।१।। भारत माँ के योग्य पुत्र थे, तन-मन-धन से पूर्ण समर्पित। निश्चित है माँ तुम्हें देखकर, रहती होगी निशिदिन हर्षित। तुमको जन्म दिया तो माँ ने, धन्य कोख निज माना होगा।। फिर भी, जब तुम चले गये तो हृदय व्यथित है, मन उदास है।।२।। ईश्वर तुमको सद्गति देंगे, इसमें कुछ संदेह नहीं है। उनको भी निश्छल-मन-जन की, आवश्यकता सदा रही है। तुमको गले लगाकर उनकी, आँखों को भर आना होगा।। फिर भी, जब तुम चले गये तो हृदय व्यथित है, मन उदास है।।३।। (स्वर्गीय श्री रतन टाटा जी को विनम्र श्रद्धांजलि 💐💐🙏🙏 ) राजेश मिश्र 

ज्योति जगाओ मैया! ज्योति जगाओ

ज्योति जगाओ मैया! ज्योति जगाओ। मनसि प्रेम की ज्योति जगाओ।। भारत माता के उपवन में, भाँति-भाँति के कुसुम खिले हैं। सबके अपने रूप-रंग हैं, अरु विशेष गुण-गंध मिले हैं। सँग महकाओ मैया! सँग महकाओ। एक सूत्र में सँग महकाओ।।१।। कौन श्रेष्ठ है? निम्न कौन है? द्वेष-घृणा सब दूर करो माँ। सब सुत तेरे, भिन्न कौन है? मन में प्रेम अपूर्व भरो माँ। भेद मिटाओ मैया! भेद मिटाओ। ऊँच-नीच का भेद मिटाओ।।२।। कोई निर्बल, दुखी नहीं हो, सभी सुखी हों, सभी बली हों। सब संपन्न, धर्म-पथ-गामी, गुणनिधान हों, नहीं छली हों। दीप जलाओ मैया! दीप जलाओ। हृदय ज्ञान का दीप जलाओ।।३।। - राजेश मिश्र 

माँ का ध्यान करो

सिंह सवारी, छवि अति न्यारी, करुणा का भण्डार… माँ का ध्यान धरो।। सुनत पुकार दौड़ि चलि आवे, पल भर भी नहिं बार लगावे, भक्त-जनों की पीर हरे माँ दुखियों के दुख दूर करे माँ, आर्त जनों पर, दया निरन्तर, बरसे अपरम्पार… माँ का ध्यान धरो।।१।। सरल स्वभाव, सहज हरषाती, शरणागत को गले लगाती, जो छल-छद्म छोड़कर आवै, मुँह माँगा वर माँ से पावे, जो नित ध्यावे, माँ अपनावे, सींचे स्नेह अपार… माँ का ध्यान धरो।।२।। पाप-ताप जब बढ़े मही पर, विकल, व्यथित हों सब सुर-मुनि-नर, दुखी धरा का भार हरे माँ, निज जन को भय-मुक्त करे माँ, हने निशाचर, दुर्मद दुर्धर, मेटे अत्याचार… माँ का ध्यान धरो।।३।। - राजेश मिश्र 

माई सपने में आई

धन्य हुआ मैं आज, माई सपने में आई।। पहले सिर पर हाथ फिराया, फिर हौलै से मुझे जगाया, प्यार से बोली, उठ जा बेटा! अर्धनिमीलित आँखों देखा, ठाढ़ी थी साक्षात, माई सपने में आई। धन्य हुआ मैं आज, माई सपने में आई।।१।। तेज देख आँखें चुँधियाईं, टूटा बंध और भर आईं, तुरतहिं माँ ने हृदय लगाया, पुचकारा, पुनि-पुनि दुलराया, हरष न हृदय समात, माई सपने में आई। धन्य हुआ मैं आज, माई सपने में आई।।२।। मुझे प्रेम से अंक बिठाया, गोदी पा मैं अति अगराया, देखी जब मेरी लरिकाई, माता मन ही मन मुसुकाई, चूम लिया फिर माथ, माई सपने में आई। धन्य हुआ मैं आज, माई सपने में आई।।३।। उपालंभ तब मेरा सुनकर, हृदय बसी सब पीड़ा गुनकर, पुनि-पुनि मुझको उर में धारा, आँसू पोंछे, रूप सँवारा, खुल गइ मन की गाँठ, माई सपने में आई। धन्य हुआ मैं आज, माई सपने में आई।।४।। माँ ने करुण-कृपा बरसाई, अंतर्मन की ज्योति जगाई, ज्ञानचक्षु के पट पुनि खोले, मुझे सुलाया हौले-हौले, कर गइ मुझे सनाथ, माई सपने में आई। धन्य हुआ मैं आज, माई सपने में आई।।५।। - राजेश मिश्र

अंबे! यह वरदान दो।

हृदय-कमल में निशिदिन रहती,  रोम-रोम को पुलकित करती, मुझको एक निदान दो। अंबे! यह वरदान दो।। नैनों में यह शक्ति जगा दो,  देखूँ सकल बुराई। लेकिन बाहर कुछ नहिं, दीखे अंतर्मन की काई। खुरच-खुरचकर फेंकूँ मन से, आराधन, तेरे चिंतन से, ऐसा तुम अवदान दो। अंबे! यह वरदान दो।।१।। वाणी में माँ शक्ति जगा दो,  तेरा ही गुण गाऊँ। निकले नाम तुम्हारा केवल,  कहने कुछ भी जाऊँ। अजपा-जाप का तार न टूटे, पल भर को भी ध्यान न छूटे, मन को ऐसा तान दो। अंबे! यह वरदान दो।।२।। श्रवण सुनें तेरी ही महिमा,  दूजा रस नहिं भाये। छन-छन कर अंतस् में पहुँचे,  अरु आनंद बढ़ाये। निंदा-स्तुति से दूर रहूँ माँ, सुख-दुख हो समभाव सहूँ माँ, आत्मतत्त्व का ज्ञान दो। अंबे! यह वरदान दो।।३।। - राजेश मिश्र

आओ मैया! घर में आओ

हम सब तेरे ही जन अंबे! हम ही तुम्हें पुकारें।आओ मइया! घर में आओ, क्यों ठाढ़ी हो द्वारे? आसन शोभन लगा हुआ है, आओ, मातु पधारो। पावन शीतल जल लाये हैं, पाद्य-अर्घ्य स्वीकारो। स्नान हेतु क्षीरोदक-दधि-घी, पंचामृत-मधु सारे।आओ मइया! घर में आओ, क्यों ठाढ़ी हो द्वारे? नाना परिमल द्रव्य है मइया, कुंकुम है, सिंदूर है। उत्तम उद्वर्तन चंदन का, इष्टगंध भरपूर है। पुष्पाक्षत से पूजें मइया, सरसिज-चरण तुम्हारे।आओ मइया! घर में आओ, क्यों ठाढ़ी हो द्वारे? लकदक लाल चुनरिया लाये, कनक देह पर धारो, आभूषण, शृंगार-वस्तु सब, इनको अंगीकारो। बीड़ा-फल-नैवेद्य-आरती, हम स्वागत में ठाढ़े।आओ मइया! घर में आओ, क्यों ठाढ़ी हो द्वारे? - राजेश मिश्र

हे अंबे! जयकार तुम्हारा

हे अंबे! जयकार तुम्हारा। कर दो बेड़ा पार हमारा।। तुम ही आदिशक्ति जगदंबे! तुमसे पह संसार है सारा। कर दो बेड़ा… सूरज, शशधर, दीपक, तारे  तुमसे ही सबमें उजियारा। कर दो बेड़ा… सचराचर के कण-कण में तुम, तुम्हीं भँवर हो, तुम्हीं किनारा। कर दो बेड़ा… हम अबोध, अज्ञानी बालक दूजा कोई नहीं सहारा। कर दो बेड़ा… पूजा, जप-तप, योग न जानें, कैसे हो उद्धार हमारा? कर दो बेड़ा… मन में मैल जमी जनमों से धुल दो बहा स्नेह-जल-धारा। कर दो बेड़ा… कर दो जीवन ज्योतिर्मय माँ, अंतस् घटाटोप अँथियारा। कर दो बेड़ा… - राजेश मिश्र 

यह मन बिलकुल धीर नहीं है

यह मन बिलकुल धीर नहीं है। कोई समझे पीर नहीं है।। माँ-बहनों! आँचल सम्भालो, द्रुपदसुता का चीर नहीं है। आँखों में आँखें दे बोलें, ऐसे अगणित वीर नहीं हैं। थाली में पकवान बहुत हैं, लेकिन घी, दधि, क्षीर नहीं हैं। आए थे हम-तुम एकाकी, अंत समय भी भीड़ नहीं है। यह दुनिया मतलब का मेला, बिन मतलब दृग नीर नही है। - राजेश मिश्र

जैसे-जैसे वय बढ़ती है

जैसे-जैसे वय बढ़ती है। अभिलाषाएँ सिर चढ़ती हैं।। जिन गलियों को छोड़ चुके थे, वे फिर से अपनी लगती हैं।। पूरी नहीं हुईं इच्छाएँ, बच्चों के आश्रय पलती हैं।। भ्रान्ति श्रेष्ठता की भूथर-सी,, अपनी बुद्धि बड़ी लगती है।। छोटे-बड़े सभी दुत्कारें, फिर भी टाँग अड़ी रहती है।। वानप्रस्थ, संन्यास भुला दो, नस-नस मोह-नदी बहती है।। राम-नाम मुख कैसे आवे? निंदा-स्तुति चलती रहती है।। - राजेश मिश्र 

हम तेरे शरणागत अंबे!

भव-बंधन काटो जगदंबे! कबसे तुझे पुकारें! हम तेरे शरणागत अंबे! बैठे तेरे द्वारे।। योनि-योनि हम भटक रहे हैं, जन्मों से संसार में। मुक्ति-युक्ति कोई नहिं सूझे, अटके हैं मझधार में। तुझको छोड़ पुकारें किसको? हमको कौन उबारे? हम तेरे शरणागत अंबे! बैठे तेरे द्वारे।।१।। पुत्र कुपुत्र कुरूप भले हो, माता सदा दुलारे। आँचल की छाया में पाले, हर दुख निज सिर धारे। तुझ बिन कौन हरे दुख मैया! किसके रहें सहारे? हम तेरे शरणागत अंबे! बैठे तेरे द्वारे।।२।। देवों पर जब जब विपदा आयी, तुमने उन्हें सँभारा। चंड-मुंड, महिषासुर मर्दिनि, रक्तबीज संहारा। अंतस् में हैं दैत्य घनेरे, तुझ बिन कौन सँहारे? हम तेरे शरणागत अंबे! बैठे तेरे द्वारे।।३।। सृजन-शक्ति है ब्रह्मा की तू, हरि तेरे बल पालें। शिव की शक्ति सँहारक तू ही, अर्धांगी बन धारें। जग की सारी क्रिया तुझी से, तेरे ही बल सारे। हम तेरे शरणागत अंबे! बैठे तेरे द्वारे।।४।। अब तो शरण में ले ले मैया! अब दुख सहा न जाये। कैसे कटे विपत्ति हमारी? कुछ भी समझ न आये। चाहे तू अपनाये मैया! या हमको दुत्कारे! हम तेरे शरणागत अंबे! बैठे तेरे द्वारे।।५।। - राजेश मिश्र 

चूम लो

चूम लो… चपल चितवन से मुझे तुम चूम लो। अहर्मुख की रश्मियों-सी दृष्टि-किरणें, छुवें हौले से मेरा कलिका कलेवर। खिल उठूँ मैं, खुल उठूँ मैं त्याग लज्जा, फिर बिखेरूँ रंग-सौरभ खिलखिला कर। चूम लो… मृदुल बातों से मुझे तुम चूम लो। मधुर मुरली की सुरीली तान-से मृदु शब्द तेरे शहद से घुलते श्रवण में। हो मदाकुल मगन-मन चंचल पवन-सी, नाचती चहुँ दिश फिरूँ, क्वण आभरण में। चूम लो… उष्ण साँसों से मुझे तुम चूम लो। सोख लेने दो मुझे इनकी तपन को, सिमटने दो सर्द भावों से लिपटकर। अरु पिघलने दो शिखर संकल्प हिम-से, फिर भिगो दूँ यह धरा शुचि वारि बनकर। चूम लो… हृदय-स्पंदन से मुझे तुम चूम लो। तृषित तन-मन आज मेरा चूम लो।। - राजेश मिश्र

दोहे

१) वाद-विवाद अनन्त है, सर्वश्रेष्ठ है कौन? आत्ममुग्ध जन-जन यहाँ, आप राखिए मौन।। २) बीते की चिन्ता नहीं, आगे की क्या जान? वर्तमान में मुदित मन, भजिये राम सुजान।। ३) राम-राम की रट रहे, श्याम रंग मन लीन। कृपा करेंगे कृपानिधि, जानि भक्तजन दीन।। ४) श्याम रंग यह गगन है, श्यामल धरती रूप। जड़-चेतन में व्याप्त है,, श्यामल रूप अनूप।। ५) राम अनादि अनंत प्रभु, सत्-चिद्-घन-आनंद। राम-नाम में रमि रहो, छाँड़ि सकल छल-छंद।। ६) पीन कलेवर वन करो, सूक्ष्माश्रम अभिराम। कारण कुटिया बैठकर, जपो राम का नाम।। पीन = स्थूल; सूक्ष्माश्रम = सूक्ष्म + आश्रम। ७) माधव की माया-नदी, विस्तृत ओर न छोर। इस तटिनी से तरण हित, थामो नाम की डोर।। ८) मोहन की मुरली मधुर, भरै हृदय में स्नेह। गोपिन श्रवणन ज्यों पड़ै, छाँड़ि चलैं निज गेह।। 9)  तरुवर पर हर वर्ष ज्यों, आये शिशिर-वसंत। मानव-जीवन में चले, सुख-दुख चक्र अनंत।। १०) बिन विचार के कर्म नहिं, सोच कर्म का मूल। सुविचारों को राखिये, दुर्विचार निर्मूल।। ११) मोर-पंख सिर पर धरे, उर वैजन्ती माल। सुभग-अधर-कर वेणु धर, सोहत हैं नँदलाल।। १२) मोहक मोहन-मुख-कमल, मोहित सब संसार। राखे हृद...

अवध में, आये हैं रघुराई

तन-मन हरषें, अँखियाँ बरसें, चलहुँ दरस को भाई। अवध में, आये हैं रघुराई।। चहक रहे हैं पसु-पक्षी सब, कोयल मंगल गावैं। दादुर टर-टर मंत्र उचारें, मेह नेह बरसावैं। पवन सनन-सन चहुँ दिसि नाचत, अति अनंद उमगाई। अवध में, आये हैं रघुराई।।१।। कली-कली खिल फूल हुई हैं, रंग-सुगंध बिखेरें। धरती हरी-भरी हो मचले, मन आमोद घनेरे। मधुकारिन् मधुपर्क बनावैं, हरि कहुँ भोग लगाई। अवध में, आये हैं रघुराई।।२।। डगर-डगर मन मगन झूमतीं, ताल-नदी हरषाने। कूप-पोखरी उमग रहे हैं, बिटप-लता हुलसाने। धाये पुरजन, भरत-शत्रुघन, बिह्वल तीनों माई। अवध में, आये हैं रघुराई।।३।। - राजेश मिश्र

भारत माँ के शीलभंग की म्लेच्छों की तैयारी है

हाथ-पाँव वे काट चुके हैं,  सिर-धड़ की अब बारी है। भारत माँ के शीलभंग की, म्लेच्छों की तैयारी है।। भाँति-भाँति की नस्लें उनकी, तरह-तरह से वार करें। कुछ सर तन से जुदा करें, कुछ  परिवर्तन की आड़ धरें। वंचित जन को लक्ष्य बनाकर, कृत्य कलुष यह जारी है। भारत माँ के शीलभंग की, म्लेच्छों की तैयारी है।।१।। लव-जिहाद से बेटी हड़पें, बोटी-बोटी कर डालें। भू-जिहाद से खेती-बाड़ी, घर-मंदिर-मठ हथिया लें। थूक-मूत-चर्बी जिहाद से, धर्म-भ्रष्टता भारी है। भारत माँ के शीलभंग की, म्लेच्छों की तैयारी है।।२।। पहली नस्ल गरल विषधर-सी, और दूसरी अजगर सी। जैसे रक्षित हों संतानें, अपनायें विधियाँ वैसी। जीवन-मरण प्रश्न लघु छोड़ो, मूल-नाश की बारी है। भारत माँ के शीलभंग की, म्लेच्छों की तैयारी है।।३।। - राजेश मिश्र

प्रिय! तू तो अति हरजाई है

द्वय लंपट लोचन-चंचरीक, फिरते मानिनि-मुख-कमल-कमल, प्रिय! तू तो अति हरजाई है।। नित तेरी राह निहारूँ मैं, विरहा में रात गुजारूँ में। नव-अरुण संग हृद्! तेरे हित, नख-शिख तन कनक सँवारूँ मैं। मधुकर! क्यों भटके गलियों में? मधुरस ढूँढ़े नव-कलियों में? मधु-कलश मेरी तरुणाई है। प्रिय! तू तो अति हरजाई है।।१।। सम्मुख सात्विक आभोग पड़ा, तू रजस्-तमस् में क्यों जकड़ा? क्या व्यथा व्यथे तेरे मन को? क्यों शृंगाटक के केंद्र खड़ा? आबंथ-बंध ढह जाने दे, तन-मन व्यलीक बह जाने दे, अतिशय अतृप्ति दुखदाई है। प्रिय! तू तो अति हरजाई है।।२।। रख दे आ सिर अंक हमारे, स्नेहिल छुवन पीर हर लगी। मेरे कुन्तल की घन-छाया, सब आतप निज सिर धर लेगी। मर्दन भावों की नरमी का, सेचन साँसो की गरमी का, शुचि स्नेह सरस सुखदाई है। प्रिय! तू तो अति हरजाई है।।३।। - राजेश मिश्र

कवि नहीं हूं

हैं यहाँ कुछ बन्धु मेरे, साथ चलना चाहता हूँ। कवि नहीं हूं, मैं यहाँ बस, बात करना चाहता हूँ।। मैं उठाता शब्द-पुष्पों को धरा से, पुनि पिरोता भाव की मृदु डोरियों में। हार यदि फिर भी अपूरित रह गया तो, तोड़ लेता हूं सुमन कुछ टहनियों से। गूँथकर अर्पित पटल पर, हार करना चाहता हूँ। कवि नहीं हूं, मैं यहाँ बस, बात करना चाहता हूँ।। सुमन सुंदर हों, नहीं हों देखने में, सुरभि सुंदर मनस् में उनके बसी है। पुष्प का जीवन भले हो एक दिन का, बाँटता पर्यंत जीवन वह हँसी है। इस क्षितिज पर बस वही मैं, पुष्प बनना चाहता हूँ। कवि नहीं हूं, मैं यहाँ बस, बात करना चाहता हूँ।। मैं अपरिचित छंद-रस-आभूषणों से, निधि है सुदामा-पोटली लघु काँख में। दैन्यता अति मथ रही मेरे हृदय को, अश्रु लज्जा से भरे हैं आौख में। जो मिला इस समिति से प्रति- दान करना चाहता हूँ। कवि नहीं हूं, मैं यहाँ बस, बात करना चाहता हूँ।। - राजेश मिश्र

दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी

चित्त चंचल में विकल इक आह होगी। दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।। इस अनृत ससार में अनुरक्त होगा! चर-अचर के प्रेम में आसक्त होगा! आज यदि तू स्नेह का भागी बना है, है सुनिश्चित कल पुनः परित्यक्त होगा। मन व्यथित, हृद् में नहीं उत्साह होगी। दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।। कौन, कब, किसका रहा है इस धरा पर? स्वार्थ-प्रेरित नित नये सम्बन्ध बनते। छूट जाते, टूट जाते चटककर यदि, वासना द्वय-पक्ष की नहिं पूर्ण करते। आचरण अनुकूल ईप्सित वाह! होगी। दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।।१।। सित-असित कर्मों के फल सारे बँधे हैं, पुण्य हो या पाप सब कुछ भोगना है। और संचित शेष रह जाये यहाँ यदि, फिर वही गठरी उठाकर लौटना है। चक्र संसृति का वही पुनि राह होगी। दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।।२।। इस भँवर से मुक्ति की बहु युक्तियाँ हैं, योग कर, नित भक्ति कर, आराधना कर। कर्मफल कृत कृष्ण को नित कर समर्पित, द्वंद्व सह निर्द्वंद्व हो नित साधना कर। दग्ध-दुख हो, प्रभु-चरण में ठाह होगी। दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।। - राजेश मिश्र

लक्ष्य-वेध हित चलना होगा

पत्थर की ठोकर भी होगी, और बिछेंगे फूल भी… फिर भी आगे बढ़ना होगा। लक्ष्य-वेध हित चलना होगा।। पथरीले पथ पर बढ़कर ही, घासों के मैदान मिलेंगे। बलखाती नदियों के उद्गम, झरनों के अवसान मिलेंगे। नरम दूब की सेज सजेगी, और चुभेंगे शूल भी… फिर भी आगे बढ़ना होगा। लक्ष्य-वेध हित चलना होगा।।१।। स्निग्ध स्पर्श समीर का होगा, अरु लू के तपते ताने भी। सुमन-सुरभि के भाव मिलेंगे, चारण भ्रमरों के गाने भी। मीठे जल का स्नेह मिलेगा, अपमानों की धूल भी… फिर भी आगे बढ़ना होगा। लक्ष्य-वेध हित चलना होगा।।२।। चलते-चलते गिर जायें यदि, द्विगुणित बल से उठना होगा। नव ऊर्जा संचार हेतु तन, तरु-छाया में रुकना होगा। कुछ अप्रतिम निर्णय भी होंगे, अरु होगी कुछ भूल भी… फिर भी आगे बढ़ना होगा। लक्ष्य-वेध हित चलना होगा।।३।। - राजेश मिश्र

बचवा भुखाइल बा

तड़पति महतारी बेकलि, काम ना ओराइल बा। कइसे के जाईं घरवाँ, बचवा भुखाइल बा।। दुइयऽ महिनवाँ के बा, बाबू जनमतुआ। पेटवा के आगि अइसन, छोड़ीं कइसे खेतवा। खेते-खरिहाने में ही, जिनगी ओराइल बा। कइसे के जाईं घरवाँ, बचवा भुखाइल बा।। पियले भिनहियँ के बा, पेट कुकुहाइल होई। टोला-महल्ला सुनि के, रोवल घबराइल होई। भोरवँ क आइल दिनवाँ, माथे नियराइल बा। कइसे के जाईं घरवाँ, बचवा भुखाइल बा।। ससुर'-सासु, जेठ-देवर, रहलें अलगाई। घरे में सयान नाहीं, खेते लेके आई। झिनकी भी लइके हवे, लेके अफनाइलि बा। कइसे के जाईं घरवाँ, बचवा भुखाइल बा।। - राजेश मिश्र

ईश्वर का वरदान है बेटी

जाति-धर्म मर्यादा खोटी, देश-राष्ट्र की सीमा छोटी, हर घर का सम्मान है बेटी। ईश्वर का वरदान है बेटी।। कुल की लक्ष्मी, कुल की देवी, वंश-बेलि की पोषक बेटी। लघुतम हो या अति विशाल हो, हर विपदा अवशोषक बेटी। एक की बेटी कुल की बेटी, घर की बेटी गाँव की बेटी, सबकी ही सन्तान है बेटी। हर समाज की आन है बेटी।।१।। बेटी बेटी, बहन भी बेटी,  अनुज-वधू, सुत-वधू है बेटी। माँ-पत्नी या दादी-नानी, सब रूपों में बेटी-बेटी। चाचा-मामा, दादा-नाना, सब सम्बन्धी सभी घराना, भैया का प्रिय प्राण है बेटी। और पिता का मान है बेटी।।२।। बेटी दुर्गा, बेटी काली, बेटी उमा, रमा अरु वाणी। बेटी ही सीता-सावित्री, बेटी ही झाँसी की रानी। गंगा बेटी, यमुना बेटी, सरस्तीव-सरयू भी बेटी, परम-पूज्य प्रतिमान है बेटी। सृष्ट्याधार प्रधान है बेटी।।३।। - राजेश मिश्र 

अपनी अलकों से कह दो तुम

काली घुंघराली मतवाली, अपनी अलकों से कह दो तुम, मुख शरत्चंद्र से मत खेलें… होठों की कोमल कलियां जब हौले-हौले मुस्काती हैं। लंपट लोलुप अलि अलकें तब, मथुरस पीने आ जाती हैं। उन्मत उच्छृंखल अरु अशिष्ट, कह दो इन चूर्णकुन्तलों से, युग अरुण-अधर से मत खेलें… गंगोत्री-सी आंखें तेरी, जब सुरसरि स्नेह बहाती हैं। मकरध्वज दग्ध हृदय मेरा, जब सिंचित करने आती हैं। आबंध-भाव-धारा बाधक, काकुल झुंडों से कह दो तुम, युग नयन-नलिन से मत खेलें… परिच्युत परित्यक्त पतित-पथगा, चूमें कानों की बाली को। कटि-कंध-ललाट-चिबुक चूमें, चूमें गालों की लाली को। लटकी लहराती बलखाती, इन भ्रष्ट लटों से कह दो तुम, मृदुलांगों से ये मत खेलें… - राजेश मिश्र

अब बहुत हुआ, अब और नहीं

कब तक हम सहते जाएंगे? एकांगी शांति निभाएंगे? यह चुप रहने का दौर नहीं, अब बहुत हुआ, अब और नहीं।। वे घर में घुसते आते हैं, हम चुप रह, सब सह जाते हैं। सब सहकर भी, चुप रहकर भी, हम ही दोषी कहलाते हैं।  वे मारें, हम मरते जाएं, हम मरने से डरते जाएं, किससे हमने यह सीखा है?  क्या यह पुरखों की शिक्षा है? राणा प्रताप की संतानें, भोजन का कोई कौर नहीं।। यह चुप रहने का दौर नहीं, अब बहुत हुआ, अब और नहीं।।१।। अन्याय न कुछ कहना भी है , अन्याय सदा सहना भी है, कुल-राष्ट्र-धर्म की सेवा में, अन्याय न रत रहना भी है। अन्यायी का हम काल बनें, कुल-राष्ट्र-धर्म की ढाल बनें, दुनिया सदियों तक याद करे, हम ऐसी एक मिसाल बनें। अब तो तलवारें खनक उठें, उत्पाती को अब ठौर नहीं। यह चुप रहने का दौर नहीं, अब बहुत हुआ, अब और नहीं।।२।। - राजेश मिश्र

हे मोहन मुरली वाले

हे मोहन! मुरली वाले! हे भक्तों के रखवाले! हे नाथ! कृपा कर दो। हम प्यासे भटक रहे हैं, जगती के मरुथल में। पर मिले कहां से तृप्ति, मृग-मरीचिका जल में। हे भव-दुख हरने वाले! दे भक्ति-सुधा-रस प्याले, अब तृप्त तृषा कर दो। तुमसे ही तपन तपन की, निशिपति भी शीतल हैं। धरती का धैर्य तुम्हीं से, तुमसे समीर-बल है। हे सर्जक! पालनहारे! संहारक तुम्हीं मुरारे! प्रभु पाप-ताप हर लो। तुम निराकार निर्गुण हो, अरु साकार-सगुण भी। हो दृष्ट-अदृष्ट सभी तुम, पूर्ण तुम्हीं, तुम कण भी। हे सृष्टि-प्रलय के स्वामी! जगदीश्वर अन्तर्यामी! निज चरण-शरण रख लो। - राजेश मिश्र

बरबस समाधि लग जाती है

तेरी अल्हड़ पदचापों पर, छम-छम-छम करती पायल पर, बरबस समाधि लग जाती है… जब-जब तू सम्मुख आती है, बनकर बसंत छा जाती है। मन मुग्ध मुदित हो जाता है, बन प्राण मुझे महकाती है। तेरे परिपूरित यौवन पर, कंचन-काया-मद-सौरभ पर, बरबस समाधि लग जाती है… जब कानों में कुंडल झूमें, नासा को मुक्तामणि चूमे। भुज-द्वय से अंगद केलि करें, उन्मुक्त हार उर पर घूमे। कटि-किंकिणि पर, कर-कंकण पर, बिंदी-टीका-चूड़ामणि पर, बरबस समाधि लग जाती है… जब चपल-चक्षु के चंचरीक, मुखमंडल पर मंडराते हैं। हृदयोत्पल के मधु भावों पर, ज्यों अपनी सूंड़ गड़ाते हैं। पाटल-प्रवाल से अधरों पर, गालों की अरुणिम आभा पर, बरबस समाधि लग जाती है… निर्मल मन से मधु छन-छन जब, वाणी से निर्झर झरता है। द्वय श्रवण-सरोवर से बहकर, अंतरतम सिंचित करता है। कोयल सी मीठी बोली पर, मदमाती हंसी-ठिठोली पर, बरबस समाधि लग जाती है… - राजेश मिश्र

आखिर अंकुर फूट पड़ा है

नवजीवन संचार हुआ है, भूमि सतत सींचे जाने से।  आखिर अंकुर फूट पड़ा है, धरती में सोये दाने से।। निष्फल वृक्ष रहे या जाये, बीज सुरक्षित रखना होगा। श्रुति-संस्कृति-अस्तित्व हेतु नित, हिम-आतप सब सहना होगा। विटप विशाल उखड़ जाते हैं, झंझावातों के आने से। आखिर अंकुर फूट पड़ा है, धरती में सोये दाने से ।।१।। एक-एक कर टूट न जायें, मुट्ठी बनकर रहना होगा। प्रबल-प्रवाह न निर्बल होवे, एक दिशा में बहना होगा। विद्युत-शक्ति न शेष बचेगी, धाराओं में बँट जाने से । आखिर अंकुर फूट पड़ा है, धरती में सोये दाने से ।।२।। ग्रहपति का परिचय आतप से, शशधर का शीतलता से है। भारत का परिचय संसृति में, सत्य सनातन सत्ता से है। वंश हमारा मिट जाएगा, धर्म सनातन मिट जाने से। आखिर अंकुर फूट पड़ा है, धरती में सोये दाने से ।।३।। - राजेश मिश्र

पाप ई तुहार बा

सुनलऽ हमार कब तूंऽ? कइसे तुहंके रोकीं? पाप ई तुहार बा तऽ, हम काहें भोगीं? कब हम कहलीं तुहंसे, माई-बाप छोड़ि दऽ? भाई-बहिनि-संगी-साथी, सबसे मुंह मोड़ि लऽ? जिद ई तुहार रहल, तुहीं हव दोषी। पाप ई तुहार बा तऽ, हम काहें भोगीं? लइके तऽ कहलं नाहीं, अलगे हमके पालऽ। सीना कऽ बोझ अपने, खुद ही संभालऽ। अंड़सा तऽ तुहंके कइसे, उनहन के कोसीं? पाप ई तुहार बा तऽ, हम काहें भोगीं? अबहिन भी एतना साजन, बिगड़ल नऽ बाट। माई-बाप हवं आखिर, भलहीं ऊ डांटं। पंउआं पे सीस धरतऽ, राखि लिहंऽ गोदी। पाप ई तुहार बा तऽ, हम काहें भोगीं? - राजेश मिश्र

संगठन की शक्ति

धन्य! धन्य! देवभूमि, धन्य! तेरे वीर पुत्र, शत्रु  के समक्ष वक्ष, तानकर खड़े हैं। चेतन हुआ समाज, खौल रहा रक्त आज,  अंत आतंक का अब, करना है अड़े हैं।। दुश्मन ने देखा दम, पीछे खींचा है कदम, हुआ दर्प चूर-चूर, ढीले कस पड़े हैं। जड़ नहीं चेतन में, है शक्ति संगठन में, खड़ी जीत आंगन में, मिलकर लड़े हैं।। - राजेश मिश्र

कहो कान्हा? करोगे कैसे तुम उद्धार?

कहो कान्हा! करोगे कैसे तुम उद्धार? तुमको तो दधि-माखन प्यारा,  ढूँढो हर घर-द्वार। मेरे घर नहिं गाय न बछिया,  नहिं कुछ अन्य अधार। कहो कान्हा! करूँ कैसे स्वागत-सत्कार? कहो कान्हा! करोगे कैसे तुम उद्धार? तुम तो भक्ति-भाव के भूखे,  पियो भक्ति-रस-धार। ज्यों ही भक्त पुकारे तुमको,  पहुँचत लगे न बार। सुनो कान्हा! नहीं मुझमें वह अमृत धार। कहो कान्हा! करोगे कैसे तुम उद्धार? कलि कलुषित कुत्सित कपटी मन,  किये हैं पाप अपार। काम-क्रोध-मद-मोह-लोभ सब,  भरे पड़े हैं विकार। कहो कान्हा! तुमसे सँभलेगा यह भार? कहो कान्हा! करोगे कैसे तुम उद्धार? - राजेश मिश्र

छू गई वह एक मृदु मुस्कान से

छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।। छू लिया हो भ्रमर को सौरभ सुमन ने, पर्वतों की चोटियाँ प्रातःशिखा ने। निर्झरी की देह को चञ्चल पवन ने, गहन काली शर्वरी को चन्द्रिका ने। कर गयी शर-विद्ध भृकुटि-कमान से।। छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।। कौंधकर सम्मुख अचानक दामिनी सी, कृष्ण-कुन्तल-सघन-घन में खो गयी पुनि। बस गयी हत हृदय में वह दिव्य मूरत, मेनका के भाव में भावित हुये मुनि। च्युत हुए हैं गाधिनन्दन ध्यान से।। छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।। खन-खनकते शब्द मधुरस में पगे से, प्रतिध्वनित ज्यों  श्रोत्र-द्वय में श्रुति-ऋचायें, हृदय की गहराइयों से प्रकट पावन, मन्दिरों में गूँजती हों प्रार्थनाएंँ। कर्ण झङ्कृत हो उठे मधु तान से।। छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।। - राजेश मिश्र

उपजी न कहीं कविता मन में

कवि कबसे बैठ विचार रहा, ढूँढ़े सारे जड़-चेतन में। उपजी न कहीं कविता मन में।। ढूँढ़े सन्तप्त सूर्य-कर में, शीतल सुधांशु की छाया में। ढूँढ़े झिलमिल ताराङ्गण में, वसुधा की श्यामल काया में। उद्वेलित सिन्धु तरङ्गों में, चञ्चल समीर के नर्तन में। उपजी न कहीं कविता मन में।। उत्तुङ्ग अचल गिरि-श्रृङ्गों में, नदियों के उर्वर समतल में। अति दुर्गम दुसह पठारों में, निष्फल निस्तेज मरुस्थल में। सर, सरि, सुग सरित् सरोवर में, गृह-ग्राम-नगर-वन-उपवन में। उपजी न कहीं कविता मन में।। शुचि वेदों में, वेदाङ्गों में, दर्शन, आगम सब ग्रन्थों में। पशु-पक्षी-कीट-पतङ्गों में, तरुणी के कोमल अङ्गों में। जीवन के सित-तम भावों में, गोचर संसृति के कण-कण में। उपजी न कहीं कविता मन में।। - राजेश मिश्र

रो मत बेटी!

रो मत बेटी! शस्त्र उठा तू,  दुर्धर दुर्गा रूप है। कालरात्रि तू, वक्ष चीर दे, तेरी शक्ति अनूप है।। बहुत हुआ अब, बहुत सहा अब, चुप रहना भी पाप है। कर दे भस्म दरिन्दों को तू, ज्वाला है, तू ताप है। चेन्नम्मा, लक्ष्मी, झलकारी, रत्ना, चम्पा रूप है।। कालरात्रि तू, वक्ष चीर दे, तेरी शक्ति अनूप है।। कलि-कलुषित इन हैवानों को, क्यों जीवन अधिकार हो? हृदय क्रोध धर, शिरोच्छेद कर, हलका भू का भार हो। अबला कब थी? रुद्र-शक्ति तू, चण्डी का पतिरूप है। कालरात्रि तू, वक्ष चीर दे, तेरी शक्ति अनूप है।। - राजेश मिश्र

बँटोगे तो कटोगे

कितनी बार बताएं तुमको? सोये रहे, निपट जाओगे। अब तो योगी भी बोले हैं, बँट जाओगे, कट जाओगे।। पल-पल संकट बढ़ा आ रहा, शत्रु सतत सिर चढ़ा आ रहा। समय नहीं है अब सोने का, सोकर सरबस खो देने का। शस्त्र-शास्त्र से सज्जित ही तुम, उसके सम्मुख डट पाओगे।। अब तो योगी भी बोले हैं, बँट जाओगे, कट जाओगे।। विपदा चौखट तक आ पहुँची, क्यों तुमको यह भान नहीं है? बहू-बेटियाँ चीख रही हैं, फटते तेरे कान नहीं हैं? राम-कृष्ण की सन्तानें तुम, मातृ दमन क्या सह जाओगे? अब तो योगी भी बोले हैं, बँट जाओगे, कट जाओगे।। मार भगाओ, या मर जाओ, बस इतना अधिकार तुम्हें है। कायर बन चुप रहते हो तो, जीवन पर धिक्कार तुम्हें है। भारत माता तुम्हें पुकारे, क्या तुम पीछे हट पाओगे? अब तो योगी भी बोले हैं, बँट जाओगे, कट जाओगे।। - राजेश मिश्र

नेवान कइसे होई

बड़ी लंबी राति बा, बिहान कइसे होई? तनिकऽ सा पिसान बा, नेवान कइसे होई? घरे घीउ-दूध नाहीं, गाइ गभिनाइल। खरचा पहाड़ जइसन,  करजा नऽ भराइल। लइका रूख-सूख खाइ जवान कइसे  होई? तनिकऽ सा पिसान बा, नेवान कइसे होई? कुछहू तऽ भेजि देतऽ अबकी महिनवां। फिसियो भराइल नाहीं, पढ़ी कइसे मुनवां। संगी-संघातिन में फिर मान कइसे होई? तनिकऽ सा पिसान बा, नेवान कइसे होई? रजुआ कऽ काका ओके भेजलेन हं नरखा। आवे के कहले बाटें पड़ले पे बरखा। मिलन मोर- तोर ए परान कइसे होई? तनिकऽ सा पिसान बा, नेवान कइसे होई? - राजेश मिश्र

देश क्या बचे?

खण्ड-खण्ड हो गया समाज, देश क्या बचे! जाति-जाति में विभक्त आज, देश क्या बचे! है बिछा दिया बहेलिये ने जाल इस तरह, बँट गया कबूतरों का झुण्ड आज लोभ में। खड्ग खींचकर खड़ा स्वबन्धु बन्धु के विरुद्ध,  आर्त क्रुद्ध वृद्ध विवश हाथ मले क्षोभ में।  खो चुके समस्त लोक-लाज, देश क्या बचे! खण्ड-खण्ड हो गया समाज, देश क्या बचे! ओज नष्ट, बुद्धि भ्रष्ट, वेग स्वार्थ का प्रबल, धर्म के विरुद्ध युद्ध धर्म-पुत्र लड़ रहा। नीति राजनीति की अनीति से सनी हुई, लोकतन्त्र का कुतन्त्र, धर्मतन्त्र मर रहा। शक्ति शून्य सा दिखे विराज, देश क्या बचे! खण्ड-खण्ड हो गया समाज, देश क्या बचे! - राजेश मिश्र

सुदामा की व्यथा

सँकुचत सुदामा चललँ, मनवाँ में भार बा। कइसे कहब कान्हा से, हालि का हमार बा।। कँखियाँ दबवले बाटँ, तनि एक चाउर। रहि-रहि कूढ़त बाटँ, लागत ह बाउर। पउँवाँ उठावँ जइसे, बड़का पहाड़ बा।। कइसे कहब कान्हा से, हालि का हमार बा।। बचपन क बतिया अब्बो, जियरा दुखारी। छोटहन क गठरी अब त, भइल होइ भारी।  कइसे भरब ऊ जवन, पहिला उधार बा।। कइसे कहब कान्हा से, हालि का हमार बा।। देखत सुदामा कान्हा, मिललँ हहाई। करजा उतरलँ सारा, दुइ मूठ खाई। छत्र तीनि लोक क ई, मितऊ तुहार बा।। भरल भाव नैन चारो, बरसत अपार बा।। - राजेश मिश्र

लाज राखो प्रभु मोर

हे गिरिधारी! कृष्णमुरारी! हे माखन के चोर! लाज राखो प्रभु मोर। श्याम गात पीताम्बर धारी। वाम अङ्ग वृषभानु दुलारी ।। वर वैजन्ती माल वक्ष पर। पंकज लोचन वेणु अधर धर।। छवि अति न्यारी, जन मन हारी, कान्ति काम की थोर, लाज राखो प्रभु मोर। तुम भक्तों के प्राण अधारे। तुमको भक्त प्राण से प्यारे।। कष्ट जनों का देख न पाते। सरबस छोड़ दौड़ कर आते।। विनय हमारी, हे बनवारी!  देखो मेरी ओर, लाज राखो प्रभु मोर। - राजेश मिश्र 

जागो हिंदू, जागो!

जगो जगो उठो उठो हुँकारते बढ़े चलो, कराल शत्रु सामने तृषार्त खड्ग खींच लो। कराहती पुकारती  दुखी निढाल भारती, प्रतप्त शत्रु रक्त से प्रदग्ध भूमि सींच दो।। नहीं दया, नहीं क्षमा निकृष्ट म्लेच्छ वंश को, उदारता नहीं कोई  दुराशयी फकीर को। दुरारुढ़ी दुराग्रही  कुदृष्टियुक्त लंपटी नराधमी पिशाच को बनो प्रचंड चीर दो।। उठो सुपुत्र राम के, उठो सुपुत्र कृष्ण के, अभिन्न अंश रुद्र के, सुसज्ज अस्त्र-शस्त्र हो। पवित्र मातृभूमि की मृदा मलो ललाट पर, शिवा, प्रताप, पुष्य सा प्रवीर हो, जयी बनो।। © राजेश मिश्र 

अब तो दरस दिखाओ मेरी मैया

अब तो दरस दिखाओ मेरी मैया। प्यासे नयन तकें बरसों से , आकर प्यास बुझाओ मेरी मैया। अब तो दरस… हरि-हर-ब्रह्मा, सुर-मुनि सेवें, सेवा भाव जगाओ मेरी मैया। अब तो दरस… कनक कलेवर, लाल चुनरिया, माँग सिंदूर सजाओ मेरी मैया। अब तो दरस… टीका, कुण्डल, मोती सोहे, चंद्रवदन दरसाओ मेरी मैया। अब तो दरस… पुष्प- हार, असि-खप्पर धारी, सिंह चढ़ी चलि आओ मेरी मैया। अब तो दरस… रक्तबीज, महिषासुर घाती, स्वजन कृपा बरसाओ मेरी मैया। अब तो दरस… काम, क्रोध, मद, लोभ, शोक सँग, मत्सर, मोह मिटाओ मेरी मैया। अब तो दरस…  - राजेश मिश्र 

आओगे जब तुम रामलला

आओगे जब तुम रामलला, हम पलकन डगर बुहारेंगे। नयनन से नीर बहायेंगे, अँसुवन जल चरण पखारेंगे।। हम रुचि-रुचि भोग लगायेंगे, अपने हाथों से खिलायेंगे, जब थककर तुम सो जाओगे, हम बैठे चरण दबायेंगे। तुम सोओगे, हम जागेंगे, अपलक प्रभु तुम्हें निहारेंगे। आओगे जब तुम रामलला, हम पलकन डगर बुहारेंगे।। तेरा पूजन, तेरा वन्दन, पल-पल प्रभु तेरा ही चिन्तन, तन में भी तुम, मन में भी तुम, तेरा ही जग में अभिनन्दन। चलते फिरते सोते-जगते, प्राणों में तुम्हीं को धारेंगे। आओगे जब तुम रामलला, हम पलकन डगर बुहारेंगे।। बस यही अनुग्रह कर देना, निज चरणों में आश्रय देना। जब भूल कभी हो जाये तो, मत चरण-शरण से तज देना। तुम अवसर देना प्रभु हमको, हम आपनी भूल सुधारेंगे। आओगे जब तुम रामलला, हम पलकन डगर बुहारेंगे।। - राजेश मिश्र

ठुमुकि चलत रघुराई

ठुमुकि चलत रघुराई, हरष हियँ तीनहुँ माई। आनंद मन न समाई, हरष हियँ तीनहुँ माई।। गिरत उठत पुनि-पुनि प्रभु धावत भागत दूर निकट फिरि आवत किलकत हँसत ठठाई, हरष हियँ तीनहुँ माई। ठुमुकि चलत रघुराई, हरष हियँ तीनहुँ माई।। रुकत झुकत घुटनन से झाँकत करत ठिठोली मातहि ताकत अद्भुत करें लरिकाई, हरष हियँ तीनहुँ माई। ठुमुकि चलत रघुराई, हरष हियँ तीनहुँ माई।। नृप दसरथ सब भाँति निछावर निरखि-निरखि पुलकित प्रिय रघुबर गुड़ गूँगा ज्यों खाई, हरष हियँ तीनहुँ माई। ठुमुकि चलत रघुराई, हरष हियँ तीनहुँ माई।। - राजेश मिश्र

राम भजो मन

राम ही सत् हैं, राम ही चित् हैं राम ही घन आनन्द हैं। राम भजो मन, राम भजो मन राम ही परमानन्द हैं।। राम सगुण हैं, राम ही निर्गुण, निराकार साकार हैं। राम ही ब्रह्मा, राम ही विष्णु, राम ही शिव अवतार हैं। राम ही सोम, सूर्य अरु अग्नि  वायु, वरुण अरु इन्द्र हैं। राम भजो मन, राम भजो मन राम ही परमानन्द हैं।। राम ही धरती, राम गगन हैं, राम ही चौदह लोक हैं। राम ही चेतन कण-कण में हैं, राम ही हर आलोक हैं। राम ही स्वर हैं, राम ही लय हैं, राम ही ताल और छन्द हैं। राम भजो मन, राम भजो मन राम ही परमानन्द हैं।। राम ही प्राण हैं, त्रिविध शरीर हैं, पञचकोश भी राम हैं। राम ही चित्त हैं, राम ही मन हैं, बुद्धि-अहं भी राम हैं। राम ही भोग हैं, राम ही योग हैं, राम जीव हैं, ब्रह्म हैं। राम भजो मन, राम भजो मन राम ही परमानन्द हैं।। - राजेश मिश्र

राम घर आये हैं

प्रेम-रस सराबोर सब अङ्ग, नयन जल छाये हैं। राम घर आये हैं।। अवध में अद्भुत है आनन्द, बज रहे ढोलक झाल मृदङ्ग, चहूँ दिशि बिखरे नाना रङ्ग, नारि-नर नाचें भरे उमङ्ग, देखि लक्ष्मण सीता प्रभु सङ्ग, हृदय हर्षाये हैं। राम घर आये हैं।। सुशोभित सुरभित बंदनवार, डगर पर फूलों की भरमार, चौक पूरे हैं हर घर-द्वार, गगन में गूँजे मङ्गलचार, देखने अनुपम दृश्य अपार, देव-मुनि धाये हैं। राम घर आये हैं।। प्रजा जन छोड़ सकल संसार, जुटे हैं भव्य राम-दरबार, भरे आँखो में स्नेह अपार, परम प्रभु रूप अनूप निहार, विकल हो‌ सारे हृदयोद्गार, दृगों से ढाये हैं। राम घर आये हैं। - राजेश मिश्र

कहाँ हैं रामलला?

कर सोलह श्रृंगार, अयोध्या अपलक डगर निहार कहां हैं रामलला? आनंद अपरंपार, बहे नयनों से अविरल धार कहां हैं रामलला? सदियों लड़कर शुभ दिन आया हर्षोल्लास लोक तिहुँ छाया घड़ी मिलन की अब आई है सिहरन सी तन में छाई है वाणी है लाचार, धड़कती छाती बारंबार, कहां हैं रामलला? कर सोलह श्रृंगार, अयोध्या अपलक डगर निहार कहां हैं रामलला? झलक दिखी रघुवर सुजान की  कृपायतन करुणानिधान की श्याम गात पर पीताम्बर की नरकेशरि की, कर धनु-शर की अमित अनंत अपार, छटा लखि लज्जित सकुचित मार कहां हैं रामलला? कर सोलह श्रृंगार, अयोध्या अपलक डगर निहार कहां हैं रामलला? राम अयोध्या सम्मुख आये पुलक गात कुछ कहि नहिं जाये देखि अलौकिक छवि अति न्यारी तुरत अयोध्या भई सुखारी भेंटी भर अँकवार, रहा सुख का नहिं पारावार विराजो रामलला। कृपासिन्धु सरकार, करो सबके दुख का निस्तार हमारे रामलला।। ,- राजेश मिश्र

दरस दिये रघुराई

दरस दिये रघुराई, हृदय गति कहि नहिं जाई। मनहिं मनहिं मुसुकाई, हृदय गति कहि नहिं जाई।। रूप सलोना सोहत ऐसे कोटिक काम खडे हों जैसे भाल तिलक सिर मुकुट बिराजे कण्ठ माल पीताम्बर साजे निरखि कलुष मिटि जाई, हृदय गति कहि नहिं जाई। दरस दिये रघुराई, हृदय गति कहि नहिं जाई।। बड़भागी प्रभु दरसन पाया जनम-जनम का पाप गँवाया नेह कमल चरणन रज लागा चंचरीक ज्यों पदुम परागा सब सुधि-बुथि बिसराई, हृदय गति कहि नहिं जाई। दरस दिये रघुराई, हृदय गति कहि नहिं जाई।। - राजेश मिश्र

आये राघव सरकार

आये राघव सरकार, मङ्गल गान करो। करने निज जन उद्धार, मङ्गल गान करो।। नील सरोरुह श्यामल सुन्दर। पूरणकाम राम सुख सागर।। चिदानन्द सत् पुरुष परात्पर। षड्विकार तम पुञ्ज दिवाकर।। परब्रह्म सगुण साकार, मङ्गल गान करो। आये राघव सरकार, मङ्गल गान करो।। निरख-निरख प्रभु-छवि अति पावनि। जन-मन रञ्जनि ताप नसावनि।। जगजननी की शोभा न्यारी। पुलक गात झूमें नर-नारी।। मन मुदित सकल संसार, मङ्गल गान करो। आये राघव सरकार, मङ्गल गान करो।। मर्यादा पुरुषोत्तम आये। धर्म-ध्वजा चहुँ-दिशि फहराये।। वेद-शास्त्र सब भये सुखारी। गावें प्रभु की महिमा न्यारी।। गूँजे है मन्त्रोच्चार, मङ्गल गान करो। आये राघव सरकार, मङ्गल गान करो।। - राजेश मिश्र

अइलं अवध रघुराई

अइलं अवध रघुराई, नगर-घर बाजे बधाई। सुर-नर-मुनि हरषाई, नगर-घर बाजे बधाई।। रामजी अइलं, लछिमन अइलंऽ देखि सिया के नयन जुड़इलंऽ भरत मिलेलं हहाई, नगर-घर बाजे बधाई। अइलं अवध रघुराई, नगर-घर बाजे बधाई।। लखन-सहोदर मगन निहारंऽ ढरकत अंसुवन चरण पखारंऽ सब सुधि-बुथि बिसराई, नगर-घर बाजे बधाई। अइलं अवध रघुराई, नगर-घर बाजे बधाई।। भई उर्मिला-गति बावरि सी चउदह बरस की अंखियां तरसीं हरषित तीनों माई, नगर-घर बाजे बधाई। अइलं अवध रघुराई, नगर-घर बाजे बधाई।। - राजेश मिश्र 

राम जी आयेंगे

रे बिकल मना! धरु धीर, राम जी आयेंगे। रख ले नयनों में नीर, राम जी आयेंगे।। आयेंगे जी भरकर रोना अँसुवन से चरणों को धोना हर लेंगे सारी पीर, राम जी आयेंगे। रे बिकल मना! धरु धीर, राम जी आयेंगे।।   भक्ति भाव भोजन करवाना कोमल शय्या उन्हें सुलाना वन कठिन सहन की भीर, राम जी आयेंगे। रे बिकल मना! धरु धीर, राम जी आयेंगे।। प्रणतपाल दुखभंजन रघुबर बरसायें नित नेह जनन पर कृपासिन्धु मतिधीर, राम जी आयेंगे। रे बिकल मना! धरु धीर, राम जी आयेंगे।। - राजेश मिश्र।

आज राम घर आयेंगे

द्वार-देहरी दीप जलाओ  आज राम घर आयेंगे। घर-घर मङ्गल-गान बजाओ  आज राम घर आयेंगे।। पावन-पुरी अवध है हर्षित, हर्षित भारत सारा है; है हर्षित हर हिन्दू तन-मन, प्रेम-गङ्ग हिय धारा है। हिल-मिल सारे नाचो-गाओ आज राम घर आयेंगे। घर-घर मङ्गल-गान बजाओ  आज राम घर आयेंगे।। हर नारी है माँ कौशल्या सुत की अपने राह तके; हर नर में फिर जीवित दशरथ राम दरश हित नैन थके। बूढ़ी आँखों पलक बिछाओ आज राम घर आयेंगे। घर-घर मङ्गल-गान बजाओ  आज राम घर आयेंगे।। प्रिय हनुमत सन्देशा लाये प्रभु बस आने वाले हैं; भरत-रिपुदमन की हर पीड़ा आज मिटाने वाले हैं। शान्ता दीदी! थाल सजाओ आज राम घर आयेंगे। घर-घर मङ्गल-गान बजाओ  आज राम घर आयेंगे।। - राजेश मिश्र